Saturday, July 28, 2012

अब्बा कैफी आजमी को याद कर रही हैं शबाना आजमी

कैफी आजमी बहुत कम उम्र में जाने-माने शायर हो चुके थे. वे मुशायरों में स्टार थे, लेकिन वे पूरी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे. वे पार्टी के कामों में मशरूफ रहते थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी के पेपर कौमी जंग में लिखते थे और ग्रासरूट लेवल पर मजदूर और किसानों के साथ पार्टी का काम भी करते थे. इसके लिए पार्टी उनको माहवार चालीस रूपए देती थी. उसी में घर का खर्च चलता था. उनकी बीवी शौकत आजमी को बच्चा होने वाला था. कम्युनिस्ट पार्टी की हमदर्द और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की मेंबर थीं इस्मत चुगतई. उन्होंने अपने शौहर शाहिर लतीफ से कहा कि तुम अपनी फिल्म के लिए कैफी से क्यों नहीं गाने लिखवाते हो. कैफी साहब ने उस वक्त तक कोई गाना नहीं लिखा था. उन्होंने लतीफ साहब से कहा कि मुझे गाना लिखना नहीं आता है. उन्होंने कहा कि तुम फिक्र मत करो. तुम इस बात की फिक्र करो कि तुम्हारी बीवी बच्चे से है और उस बच्चे की सेहत ठीक होनी चाहिए. उस वक्त शौकत आजमी के पेट में जो बच्चा था, वह बड़ा होकर शबाना आजमी बना.

कैफी साहब ने 1951 में पहला गीत बुजदिल फिल्म के लिए लिखा रोते-रोते बदल गई रात. हमको याद करना चाहिए कि कैफी साहब ट्रेडीशनल बिल्कुल नहीं थे. शिया घराने में एक जमींदार के घर में उनकी पैदाइश हुई थी. मर्सिहा शिया के रग-रग में बसा हुआ है. मुहर्रम में मातम के दौरान हजरत अली को जिन अल्फाजों में याद करते हैं, वह शायरी में है. उसकी एक रिद्म है. शिया घरानों में इस चीज की समझ हमेशा से रही है. उसके बाद, वे जिस माहौल में पले-बढ़े, वहां शायरी का बोल-बाला था. गयारह साल की उम्र में उन्होंने लिखा था, ‘‘इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकूं, न रोने से कल पड़े.’’ गैर मामूली टैलेंट उनमें हमेशा से था. उस जमाने में जो भी फिल्मों से जुड़े, चाहे वह साहिर हों, मजरूह हों, शैलेंद्र हों, कैफी साहब हों, सबने इसे रोजगार का जरिया बनाया. ये सब शायरी करते थे, लेकिन शायरी की वजह सो कोई आमदनी नहीं थी. फिल्म आमदनी का एक जरिया बन गई.

एक नानू भाई वकील थे, जो स्टंट टाइप की फिल्में लिखते थे. उनके लिए भी कैफी साहब ने गीत लिखे. साथ में वे पार्टी का काम भी करते रहते थे. उनको पहला बड़ा ब्रेक मिला 1959 में, फिल्म कागज के फूल में. अबरार अल्वी ने उन्हें गुरूदत्त से मिलवाया. गुरूदत्त से बड़ी जल्दी उनकी अच्छी बन गई. कैफी साब कहते थे, ‘‘उस जमाने में फिल्मों में गाने लिखना एक अजीब ही चीज थी. आम तौर पर पहले ट्यून बनती थी. उसके बाद उसमें शब्द पिरोए जाते थे. ये ठीक ऐसे ही था कि पहले आपने कब्र खोद ली. फिर उसमें मुर्दे को फिट करने की कोशिश करें. तो कभी मुर्दे का पैर बाहर रहता था तो कभी कोई अंग. मेरे बारे में फिल्मकारों को यकीन हो गया कि ये मुर्दे ठीक गाड़ लेता है, इसलिए मुझे काम मिलने लगा.’’ वे यह भी बताते हैं कि कागज के फूल का जो मशहूर गाना है वक्त ने किया क्या हंसीं सितम.. ये यूं ही बन गया था. एस डी बर्मन और कैफी आजमी ने यूं ही यह गाना बना लिया था, जो गुरूदत्त को बेहद पसंद आया. उस गाने के लिए फिल्म में कोई सिचुएशन नहीं थी, लेकिन गुरूदत्त ने कहा कि ये गाना मुझे दे दो. इसे मैं सिचुएशन में फिट कर दूंगा. आज अगर आप कागज के फूल देखें तो ऐसा लगता है कि वह गाना उसी सिचुएशन के लिए बनाया गया है.

कैफी साहब के गाने बेइंतेहा मशहूर हुए, लेकिन फिल्म कामयाब नहीं हुई. गुरूदत्त डिप्रेशन में चले गए. उसके बाद कैफी साहब के पास शोला और शबनम फिल्म आई. उसके गाने बहुत मशहूर हुए. जाने क्या ढूंढती हैं ये आंखें मुझमें और जीत ही लेंगे बाजी हम-तुम, लेकिन फिर फिल्म नहीं चली. फिर अपना हाथ जगन्नाथ आई. एक के बाद एक कैफी साहब की काफी फिल्में आईं और सबके गाने मशहूर, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर एक भी फिल्म नहीं चली. शमां जरूर एक फिल्म थी, जिसमें सुरैया थीं, उसके गाने मशहूर हुए और वह पिक्चर भी चली. लेकिन ज्यादातर जिन फिल्मों में इन्होंने गाने लिखे, वह नहीं चलीं. फिर फिल्म इंडस्ट्री ने इनसे पल्ला झाडऩा शुरू कर दिया और लोग यह बात कहने लगे कि कैफी साहब लिखते तो बहुत अच्छा हैं, लेकिन ये अनलकी हैं.

इस माहौल में चेतन आनंद एक दिन हमारे घर में आए. उन्होंने कहा कि कैफी साहब, बहुत दिनों के बाद मैं एक पिक्चर बना रहा हूं. मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म के गाने आप लिखें. कैफी साहब ने कहा कि मुझे इस वक्त काम की बहुत जरूरत है और आपके साथ काम करना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, लेकिन लोग कहते हैं कि मेरे सितारे गर्दिश में हैं. चेतन आनंद ने कहा कि मेरे बारे में भी लोग यही कहते हैं. मैं मनहूस समझा जाता हूं. चलिए, क्या पता दो निगेटिव मिलकर एक पॉजिटिव बन जाए. आप इस बात की फिक्र न करें कि लोग क्या कहते हैं. कर चले हम फिदा जाने तन साथियों.. गाना बना. हकीकत (1964) फिल्म के तमाम गाने और वह पिक्चर बहुत बड़ी हिट हुई. उसके बाद कैफी साहब का कामयाब दौर शुरू हुआ. चेतन आनंद साहब की तमाम फिल्में वो लिखने लगे, जिसके गाने बहुत मशहूर हुए.

हीर रांझा (1970) में कैफी साहब ने एक इतिहास कायम कर दिया. उन्होंने पूरी फिल्म शायरी में लिखी. हिंदी सिनेमा के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. आप उसका एक-एक शब्द देखें, उसमें शायरी है. उन्होंने इस फिल्म पर बहुत मेहनत की. वह रात भर जागकर लिखते थे. उन्हें हाई ब्लडप्रेशर था. सिगरेट बहुत पीते थे. इसी दौरान उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ और फिर पैरालसिस हो गया. उसके बाद फिर एक नया दौर शुरू हुआ. नए फिल्ममेकर्स कैफी साहब की तरफ अट्रैक होने लगे. उनमें चेतन आनंद के बेटे केतन आनंद थे. उनकी फिल्म टूटे खिलौने के गाने उन्होंने लिखे. उसके बाद उन्होंने मेरी दो-तीन फिल्मों टूटे खिलौने, भावना, अर्थ के गाने लिखे. बीच में सत्यकाम, अनुपमा, दिल की सुनो दुनिया वालों बनीं. ऋषिकेष मुखर्जी के साथ भी उन्होंने काम किया. अर्थ के गाने बहुत पॉपुलर हुए और फिल्म भी बहुत चली.

कैफी साहब का लिखने का अपना अंदाज था. जब डेडलाइन आती थी, तब वे लिखना शुरू करते थे. वो रात को गाने लिखने बैठते थे. उनका एक खास तरह का राइटिंग पैड होता था. वे सिर्फ मॉन्ट ब्लॉक पेन से लिखते थे. बाकी उनकी कोई जरूरत नहीं होती थी. ऐसा नहीं होता था कि बच्चों शोर मत करो, अब्बा लिखना शुरू कर रहे हैं. उनका अपना स्टडी का कमरा था, उसको वो हमेशा खुला रखते थे. हम लोग कूदम-कादी करते रहते थे. रेडियो चलता रहता था, ताश खेला जा रहा होता था. मैं हमेशा अब्बा से यह सवाल पूछती थी कि क्या गाने हकीकत की जिंदगी से प्रेरित होते हैं? अब्बा कहते थे कि शायर के लिए, राइटर के लिए, यह बहुत जरूरी है कि जो घटना घटी है, वह उससे थोड़ा सा अलग हो जाए, तब वह लिख सकता है. फिल्म की जो लिरिक राइटिंग है, वह महदूद होती है. वो सिचुएशन पर डिपेंड होती है. शायर जिंदगी को परखता है. जब आप जिंदगी के दर्द को महसूस करते हैं, जिंदगी से मुहब्बत महसूस करते हैं तब आप अपने अंदर के इमोशन से इन टच रहते हैं.

कैफी साहब ने गर्म हवा (1973) के डायलॉग लिखे, जो जिंदगी से जुड़े हुए थे. जावेद साहब को एक-एक डायलॉग याद हैं. मजेदार बात है कि गर्म हवा में सबको एक किरदार जो याद रहता है वह है बलराज साहनी की मां का, जो कोठरी में जाकर बैठ जाती है और कहती है कि यह घर मैं बिल्कुल नहीं छोड़ूंगी. यह किस्सा मम्मी की नानी के साथ हुआ था, जो उन्होंने कैफी साहब को सुनाया था, जिसे उन्होंने हूबहू लिख दिया था. गीता और बलराज जी के बीच में बहुत सारे सीन हैं. वह मेरे और अब्बा के बीच के रिश्ते से हैं. फारुक और गीता के बीच के सीन मेरे और बाबा के बीच के हैं. वो हमेशा अपने आस-पास की घटनाओं पर नजर रखते थे. मैं आजाद हूं फिल्म के गीत कितने बाजू कितने सर में उनकी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सक्रियता का असर देखा जा सकता है.

कैफी साहब ने बहुत मुख्तलिफ डायरेक्टरर्स के साथ काम किया. उस वक्त जिन लोगों का बहुत नाम था, जिनमें कैफी साहब, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, जां निसार अख्तर और शैलेंद्र थे, ये सब लेफ्टिस्ट मूवमेंट से जुड़े थे और सब प्रोग्रेसिव राइटर्स थे. उनके पास जुबान की माहिरी थी. उस जमाने में गानों में जो जुबान इस्तेमाल होती थी, वो हिंदुस्तानी थी और उसमें उर्दू बहुत अच्छी तरह से शामिल थी. चाहे आप शैलेंद्र को देख लें, साहिर को देखें, जां निसार अख्तर को देखें या फिर कैफी साहब को, सबके गीतों में बाकायदा शायरी और जिंदगी का एक फलसफा भी होता था.

कैफी साहब के लिखे तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो (अर्थ), कर चले हम फिदा (हकीकत), दो दिन की जिंदगी (सत्यकाम), जरा सी आहट (नौनिहाल), झूम-झूम ढलती रात (कोहरा), ये नैन (अनुपमा) मुझे बहुत पसंद हैं. मैं इन गीतों को बार-बार सुनती हूं. हां, पाकीजा (1972) फिल्म का चलते-चलते कोई यूं ही मिल गया था.. भी मुझे बहुत पसंद है.

आज जिस तरह के गाने लिखे जाते हैं और उनमें जिस तरह के अल्फाज होते हैं, उस पर मुझे बहुत अफसोस है. मैं सोचती हूं कि कहां चले गए वो गाने. आज हम हिंदी फिल्म के गानों को खो रहे हैं. मुझे लगता है कि यह हम गलती कर रहे हैं. जाहिर है कि वक्त के साथ सबको बदलना चाहिए, लेकिन हिंदी फिल्म की सबसे बड़ी ताकत उसका गाना है. यह उसे दुनिया के सभी सिनेमा से अलग बनाता है. अगर हम उसकी खूबी यानी यूएसपी को निकाल देंगे तो फिर हमारे पास रह क्या जाएगा? मुझे लगता है कि हमें इस दौर से निकलना चाहिए.

आजकल के गानों में अल्फाज सुनाई ही नहीं देते हैं. बिना अल्फाज के मुझे गाने का मतलब ही नहीं समझ में आता है. मैं सोचती हूं कि कब आएगा वह पुराना वक्त? मुझे यकीन है कि वह वक्त आएगा जरूर, क्योंकि आप देखिए जिस जमाने में एक लडक़ी को देखा तो ऐसा लगा.. गाना चल रहा था, उसी जमाने में सरकाई लेओ खटिया जाड़ा लगे भी चला था. ठीक वैसा ही दौर चल रहा है आज. हम लोगों के साथ ज्यादती कर रहे हैं. हम कहते हैं कि उनको अच्छे गीत का टेस्ट नहीं है, लेकिन अगर हम उन्हें वैसे गाने दे ही नहीं रहे हैं तो वो सुनेंगे कहां से? और फिर हम इस गलत नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि गाने की कोई अहमियत नहीं होती है. मुझे लगता है कि कैफी साहब की दसवीं सालगिरह पर हमें एक बार फिर कमिट करना चाहिए.. वो इतने बड़े शायर थे, हम उनके काम को उठाएं, संभालें, देखें और युवा लेखकों को प्रेरणा दें ताकि वे कुछ सीखें.

जब फूट-फूटकर रो पड़ीं शबाना


अर्थ
कैफी आजमी द्वारा लिखित अर्थ फिल्म के गीत तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो.. की शूटिंग दो दिन तक हुई थी. इस गीत की शूटिंग के दौरान हर शॉट के बाद शबाना आजमी की आंखों से बरबस आंसू निकल आते थे. बकौल शबाना, ‘‘मेरी आंखों से भर-भरकर आंसू निकल आते थे, क्योंकि वो इतनी नजाकत से लिखे हैं. कैसे बताएं कि वो तन्हा क्यों हैं.. इतनी खूबसूरती से यह गाना लिखा हुआ है.’’



कैफी आजमी के जीवन पर एक नज़र:-

-कैफी आजमी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में मिजवां ग्राम में 1919 में हुआ था.

-कैफी आजमी की जन्मतिथि उनकी अम्मी को याद नहीं थी. उनके मित्र डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर सुखदेव ने उनकी जन्मतिथि चौदह जनवरी रख दी.

-उन्होंने 1943 में कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली. बाद में वे प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के सक्रिय कार्यकर्ता बने.

-1951 में वे फिल्मों से जुड़े. शाहिद लतीफ की फिल्म बुजदिल में उन्होंने पहली बार गीत लिखे. बाद में उन्होंने हीर रांझा, मंथन और गर्म हवा फिल्मों का लेखन किया.

-कैफी आजमी ने सईद मिर्जा की फिल्म नसीम (1997) में अभिनय किया. यह किरदार पहले दिलीप कुमार निभाने वाले थे.

-कैफी आजमी केवल मॉन्ट ब्लॉक पेन से लिखते थे. उनकी पेन की सर्विसिंग न्यूयॉर्क के फाउंटेन हॉस्पिटल में होती थी. जब उनकी मौत हुई, तो उनके पास अट्ठारह मॉन्ट ब्लॉक पेन थे.

-कैफी आजमी को सात हिंदुस्तानी (1969) के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

-भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया था. इसके अलावा, उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं गर्म हवा (1975) के लिए सर्वश्रेष्ठ कथा, पटकथा एवं संवाद के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

-कैफी आजमी ने कुल अस्सी हिंदी फिल्मों में गीत लिखे हैं.

(जनवरी २०१२-फिल्मफेयर)

Thursday, July 19, 2012

माही गिल "हां! मैं बहुत शर्मीली हूं "


(किसे पता था कि आर्मी ज्वॉइन करने निकली एक लड़की बॉलीवुड पहुंचकर अभिनय की दुनिया में झंडा गाड़ेगीइसे किस्मत कहें, करिश्मा या कर्म... जो भी है लेकिन माही गिल अभिनय की जंग में सशक्त सिपहसालार बनकर उभरी हैं और उनकी जीत पक्की है। चुनिंदा फ़िल्मों से माही ने न सिर्फ़ ख़ुद को साबित किया है, बल्कि उनकी तुलना तब्बू जैसी बेहतरीन अदाकारा से होने लगी है। परदे पर जैसी नज़र आती हैं, असल ज़िंदगी में उससे बिल्कुल उलट हैं माही...) 

बचपन कहां और कैसे बीता?
चण्डीगढ़ में। वहीं पैदा हुई और पली-बढ़ी हूं। घर में अनुशासन का माहौल था, लेकिन मैं बहुत शरारती थी। पढ़ाई में अच्छी होने के कारण मेरी शरारतें अक्सर नज़रअंदाज़ कर दी जाती थीं। चण्डीगढ़ में स्कूल-कॉलेज में अच्छा समय गुज़रा। यूनिवर्सिटी के दिन भुलाए नहीं भूलते, वह मेरे जीवन का बेहतरीन वक्त था, वहां से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
एक्टिंग के क्षेत्र में कैसे आईं?
मैं सिख परिवार से हूं और बचपन से ही आर्मी ज्वॉइन करना चाहती थी। नाना फौज में थे, इसलिए वह माहौल शुरू से पसंद था। मैंने कॉलेज में नेशनल कैडेट कोर ज्वॉइन किया। फायरिंग में मेरा कमांड बहुत अच्छा था। देशभर से कुल 16 एनसीसी छात्राओं को फौज के लिए चुना गया, उनमें से एक मैं थी। हमें चेन्नई भेजा गया, लेकिन वहां पैरासेलिंग के दौरान मुझे चोट लग गई और लौटना पड़ा। 
चण्डीगढ़ आकर पंजाब यूनिवर्सिटी में मैंने इंडियन थिएटर का फॉर्म भर दिया। स्कूल में एकाध बार नाटक किया था, लेकिन थिएटर की बाक़ायदा पढ़ाई भी होती है, यह नहीं पता था। मैंने फॉर्म महज़ इसलिए भरा था क्योंकि मुझे यूनिवर्सिटी में दाख़िला लेना था। हालांकि जैसे-जैसे थिएटर के बारे में जानना शुरू किया तो एक अलग दुनिया मेरे सामने आती गई। इसके बाद मैंने ख़ुद को पूरी तरह थिएटर के प्रति समर्पित कर दिया। एक्टिंग की शुरुआत वहीं से हुई।

...और मुंबई का सफ़र?
कुछ निजी कारणों से मैं चण्डीगढ़ छोड़ना चाहती थी, लेकिन एक्टिंग के अलावा ऐसा कुछ नहीं था, जो मैं कर सकती थी। पहले कुछेक पंजाबी फ़िल्मों में काम कर चुकी थी, लगा कि मुंबई जाकर किस्मत आज़मानी चाहिए। सामान पैक किया और आ गई। मैं सेल्फ-मेड इंसान हूं। मुझे यह पसंद नहीं है कि कोई मुझे सहारा दे, इसलिए मुंबई आकर इंडस्ट्री में काम ढूंढने के सिवा मेरे पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था। 
जब मुंबई आईं तो ज़हन में क्या था? 

अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं सोचा था। यही दिमाग में था कि रोज़ी-रोटी तो चल ही जाएगी। टेलीविज़न में काम कर लूंगी या शायद फ़िल्मों में भी छोटे-मोटे रोल मिल जाएं। पत्रिकाओं में पढ़ती थी कि फलां न्यूकमर को किसी डायरेक्टर ने कॉफी-शॉप में स्पॉट कर लिया, किसी पेट्रोल पंप पर या किसी पार्टी में देखकर उसे फ़िल्म ऑफर कर दी। यह सोचकर मैं रोज़ पार्टियों में जाने लगी कि शायद मुझे भी कोई डायरेक्टर देख लेगा और अपनी फ़िल्म में साइन कर लेगा। यह मुश्किल भी था, क्योंकि इतने पैसे नहीं होते थे कि मैं रोज़ नए कपड़े ख़रीद सकूं। मुझे याद है कि एक पार्टी में जाने के लिए मैंने पहली बार अपने बाल ब्लो-ड्राई करवाए, जिसमें 600 रुपए ख़र्च हो गए। मैंने सोचा कि ऐसे ही चलता रहा तो मैं खाऊंगी क्या! फिर मैंने इस्तरी से अपने बाल सीधे करने शुरू किए, महंगे कपड़ों के बजाय मिक्स-एंड-मैच करके कपड़े पहनने शुरू किए। इस तरह मैं क़रीब साल भर तक पार्टियों और डिस्कोथेक्स में जाती रही, लेकिन कुछ नहीं हुआ।
एक बार मैं किसी दोस्त के बच्चे की बर्थडे पार्टी में नाच रही थी। वहां अनुराग कश्यप ने मुझे देखा और नो स्मोकिंग फ़िल्म में काम करने का ऑफर दिया। हालांकि वह फ़िल्म मैं नहीं कर पाई, क्योंकि निर्माता नहीं चाहते थे कि कोई नई लड़की फ़िल्म करे, लेकिन बाद में मुझे देव डी में मौक़ा मिला।
फ़िल्मों में थिएटर कितना काम आया है?
थिएटर ने मेरे अंदर आत्मविश्वास पैदा किया है। सह-कलाकारों के साथ दिक्कत नहीं आती, क्योंकि हमेशा यह ज़हन में रहता है कि आपको अपना बेहतर देना है। थिएटर की वजह से लंबे-लंबे संवाद आसानी से बोल पाती हूं। हालांकि कुछ चीज़ों पर मुझे काम करना पड़ा। थिएटर में आप बहुत ला होते हैं, क्योंकि आपको आख़िरी सीट पर बैठे दर्शक तक पहुंचना होता है। दूसरा, फ़िल्मों में कैमरा आपके हर छोटे-बड़े इमोशन और एक्सप्रेशन को पकड़ता है इसलिए शूटिंग के दौरान काफी सजग रहना पड़ता है। मैं थिएटर बहुत मिस करती हूं, लेकिन थिएटर ब्रेड मुश्किल से दे पाता है, बटर तो दूर की बात है।
साहब, बीबी और गैंगस्टर में माधवी का किरदार काफी बोल्ड था, इसे निभाने में दिक्कत आई?
काफी चैलेंजिंग था। फ़िल्म के एक दृश्य में मुझे शराबी दिखना था। कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैंने तिग्मांशु जी से कहा कि अगर मैं वोदका के एक-दो शॉट ले लूं तो शायद अच्छा अभिनय कर पाऊंगी। पैग पीकर मैं सैट पर पहुंची। वोदका ठीक-ठाक असर कर गया था क्योंकि मैंने सारा दिन कुछ नहीं खाया था। दृश्य फिल्माए जाने के बाद मैं तिग्मांशु जी से कहती रही कि फिर से शूट कर लेते हैं, लेकिन वो नहीं माने। मुझे बाद में पता चला कि सीन कमाल का हुआ था। मैथड एक्टिंग काम तो आई, लेकिन फिर मैंने इससे तौबा कर ली। 
पंजाबी फ़िल्मों में भी काम कर रही हैं?
मुंबई आने के बाद मैं पंजाबी फ़िल्मों में काम नहीं कर पाई। लेकिन हाल में एक दोस्त के कहने पर पंजाबी फ़िल्म की है, जो उसका डायरेक्टर भी है। फ़िल्म का नाम कैरी ऑन जट्टा है। यह रोमांटिक कॉमेडी है और ऐसा रोल मैं पहली बार कर रही हूं। जब भी पंजाब जाती हूं तो लोग शिक़ायती लहज़े में कहते हैं कि मैं पंजाबी फ़िल्में क्यों नहीं करती। मैं तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हूं कि मेरे करियर की शुरुआत पंजाबी फ़िल्मों से हुई और आज मैं जो कुछ भी हूं, उन फ़िल्मों की वजह से ही हूं। रोल अच्छा हो तो पंजाबी फ़िल्में करने से मुझे कोई परहेज़ नहीं है।
आपने अनुराग कश्यप और तिग्मांशु धूलिया जैसे फ़िल्मकारों के साथ काम किया है, दोनों की निर्देशन शैली में क्या अंतर है?
अनुराग और तिग्मांशु, दोनों हमेशा नई चीज़ें लेकर आते हैं और कमाल के अभिनेता भी हैं, लेकिन दोनों के काम करने का तरीका बिल्कुल अलग है। अनुराग एक्टर को परफॉर्म करने के लिए खुला छोड़ देते हैं। ख़ुद वो सेट पर किसी बच्चे की तरह होते हैं। कोई शॉट अच्छा हो जाए तो जोश में आकर एक्टर को गले से लगा लेते हैं। तिग्मांशु को कोई सीन पसंद न आए तो वो ख़ुद उसे एक्ट करके बताते हैं और यह काम वो इतनी अच्छी तरह से करते हैं कि समझ में न आने का सवाल ही नहीं होता। उनके समझाने का तरीका बहुत अच्छा है। अनुराग और तिग्मांशु, दोनों अपनी-अपनी जगह कमाल के निर्देशक हैं।
पुराने दौर और आज के सिनेमा में क्या बुनियादी फर्क़ आया है?
बहुत फर्क़ आ चुका है। समय के साथ-साथदर्शकभी बदल चुका है। आज का सिनेमा ज़्यादा यथार्थवादी है। पहले जिस तरह की फ़िल्में होती थीं, उनमें शायद ही कुछ प्रैक्टिकल या रियलस्टिक होता था। अब दर्शक वास्तविकता से ज़्यादा सरोकार रखते हैं। अभिनय, संवाद अदायगी, यहां तक कि पूरी शैली में ही बदलाव आ गया है। पहले कम फ़िल्में बनती थीं, अब एक दिन में पांच-पांच फ़िल्में रिलीज़ होती हैं। पहले कोई फ़िल्म ख़त्म करने में एक साल लग जाता था, अब फ़िल्म तीस दिन में पूरी हो जाती है। दर्शकों को लुभाने के लिए प्रमोशन भी उसी हिसाब से करनी पड़ता है, अब मार्केटिंग के हथकंडे अपनाकर उन्हें थिएटर तक लाना पड़ता है।
ख़ूबसूरती के पैमाने भी बदले हैं, इस पर क्या कहेंगी?
पुराने ज़माने में अभिनेत्रियों में मासूमियत और ताज़गी नज़र आती थी। पहले लड़कियों को फ़िल्म इंडस्ट्री में जाने की इजाज़त नहीं मिलती थी, जिन्हें मंज़ूरी मिलती थी, उन्हें फ़िल्मों के बारे में कुछ पता नहीं होता था। तब हीरोइनों के लुक पर बहुत ध्यान दिया जाता था, आजकल पूरे पैकेज पर ग़ौर किया जाता है। अब फ़िल्मों में आने से पहले बाक़ायदा प्रशिक्षण लिया जाता है। चाहे मैं हूं या कोई और, सब प्रशिक्षित हैं। हमारी मासूमियत इसलिए भी ख़त्म हो जाती है, क्योंकि हम पहले से सब जानते हैं। मेरी एक आंटी ने मुझसे कहा कि जब तुम नॉट ए लव स्टोरी में रो रही थीं तो तुम्हें इतनी बुरी शक्ल बनाने की क्या ज़रूरत थी, थोड़ा आराम से रोना चाहिए था। मुझे उन्हें बताना पड़ा कि अगर मैं आराम से रोती तो दर्शक मुझसे जुड़ नहीं पाते, मैं उन्हें अपने दुख में शामिल नहीं कर पाती। पहले हंसते या रोते हुए भी ख़ूबसूरत दिखना ज़रूरी होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। पुराने दौर की अभिनेत्रियां फिगर पर उतना ध्यान नहीं देती थीं, फिर भी वे अच्छी लगती थीं, लेकिन अब फिटनेस पर पूरा ध्यान देना पड़ता है। ज़रा-सा वज़न बढ़ा नहीं कि हम चर्चा का विषय बन जाते हैं। किसी रोल विशेष के लिए थोड़ा वज़न बढ़ाने के लिए कहा जाता है लेकिन बाद में हमें उसी तरह पतला दिखना पड़ता है। 
फिट रहने के लिए क्या करती हैं?
जब भी वक्त मिलता है तो कार्डियो कर लेती हूं। सुबह उठकर गरम पानी ख़ूब पीती हूं। अभी योग शुरू किया है। सुबह-शाम एक घंटा योग के लिए निकालती हूं। मैं बहुत जल्दी चिढ़ जाती हूं, ऐसे में योग फ़ायदेमंद साबित हुआ है। इससे मुझे शांत और संतुलित रहने में मदद मिल रही है।
किस्मत पर कितना भरोसा है?
पूरा.... किस्मत ने अब तक पूरा साथ दिया है। किस्मत नहीं होती तो बच्चे की पार्टी में पागलों की तरह नाचते हुए देखकर अनुराग कश्यप मुझे फ़िल्म का ऑफर नहीं देते। अगर अनुराग ने देव डी के लिए मेरा ऑडिशन लिया होता तो शायद मैं आज यहां नहीं होती क्योंकि मैं ऑडिशन देने में बहुत बुरी हूं। मैंने कई फ़िल्मों के लिए ऑडिशन दिए थे, लेकिन ठीक न कर पाने की वजह से हमेशा रह जाती थी। मुझे आज भी ऑडिशन देने में वैसी ही घबराहट होती है जैसी किसी बच्चे को परीक्षा के समय होती है। सच तो यह है कि किस्मत के साथ मेहनत भी ज़रूरी है। ऐसा नहीं है कि किस्मत से ही सब संभव हो जाता है। मेहनत करते हैं तो नसीब भी साथ देता है।   
ख़ुशी के क्या मायने हैं?
किसी की मदद करना। आपकी वजह से किसी के चेहरे पर ख़ुशी आती है तो जीवन में इससे बड़ा सुख और कुछ नहीं है। आप किसी के लिए कुछ करते हैं तो अपनी संतुष्टि और ख़ुशी के लिए करते हैं। लोग कहते हैं कि हमने उसके लिए यह कर दिया, वह कर दिया, लेकिन ऐसा कहना ठीक नहीं है। मेरा जीवन दर्शन है- सकारात्मक रहना और हमेशा ख़ुश रहना। किसी का अच्छा नहीं कर सकते तो बुरा भी नहीं करना चाहिए। पंजाबी में एक कहावत है कि नीतां नूं मुरादां...। अगर आपकी नीयत अच्छी है तो आपके साथ हमेशा अच्छा ही होता है, आप हमेशा ख़ुश रहते हो। किसी का रास्ता रोकने की कोशिश कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो आपको मिलना है, वह तो मिलेगा ही।
अपने बारे में ऐसी बात बताएं, जो किसी को नहीं पता!
लोगों को लगता है कि मैं बहुत बिंदास हूं, लेकिन ऐसा नहीं है। मैं बहुत शर्मीली हूं। जब काम नहीं कर रही होती तो घर में ही रहती हूं। मुझे पार्टियों में जाना बिल्कुल पसंद नहीं है। मैं सिर्फ़ उन लोगों के साथ ही सहज महसूस करती हूं, जिन्हें मैं अच्छी तरह जानती हूं।  
ख़ाली वक्त में क्या करती हैं?
नींद पूरी करती हूं। दोस्तों से मिलती हूं, उन्हें घर बुलाती हूं या उनके घर चली जाती हूं। हम जब भी मिलते हैं, अच्छा खाना बनाते हैं और ख़ूब मस्ती करते हैं। ये सब वो दोस्त हैं जिन्होंने बुरे वक्त में भी मेरा साथ नहीं छोड़ा। आप चाहे किसी भी मुकाम पर पहुंच जाएं, उन दोस्तों को नहीं भूलना चाहिए जो मुश्किल वक्त में भी आपके साथ खड़े हों, क्योंकि वही दोस्त आपके शुभचिंतक और सच्चे आलोचक होते हैं। मेरे दोस्त मुझे स्टार की तरह नहीं लेते, बल्कि अच्छा काम करने पर तारीफ़ करते हैं और ख़राब करने पर आलोचना। वे मुझे मेरी ख़ामियां बताते रहते हैं। दोस्तों के साथ समय बिताने के अलावा मुझे घूमने का बहुत शौक है। 
भारत में पसंदीदा जगह कौन-सी है?
केरल। वैसे, मुझे पहाड़ों पर जाना बहुत भाता है। मनाली, मसूरी और नैनीताल मेरी पसंदीदा जगहें हैं। समय मिलते ही नॉर्थ-ईस्ट जाना है। मुंबई में पसंदीदा जगह है- मेरा घर, उससे बेहतर जगह मेरे लिए पूरी दुनिया में कहीं नहीं है। रेस्तरांओं में अर्बन तड़का, क्योंकि वहां बहुत अच्छा भारतीय भोजन मिलता है। कॉन्टिनेंटल खाने के लिए पॉप टेट्स जाती हूं।
खाने में क्या पसंद है?
देसी खाना। मांसाहारी से ज़्यादा शाकाहारी खाने को तरजीह देती हूं। छोले-कुलचे, सरसों का साग और मक्की की रोटी बेहद पसंद है। इसके अलावा ग्रीस और इटली का भोजन भी अच्छा लगता है। वैसे मैं ख़ुद बहुत अच्छा खाना बना लेती हूं... ख़ासतौर से छोले, सूखे आलू और पनीर-दो-प्याज़ा। बहुत-से लोग बैंगन पसंद नहीं करते लेकिन मेरे हाथ की बनी बैंगन की सब्ज़ी खाकर पसंद करने लगते हैं।
परिवार में कौन-कौन है?
दो भाई, जो मां के साथ अमरीका में रहते हैं। बहुत वक्त बीत गया है उनसे मिले हुए। सबको काफी मिस करती हूं, ख़ासकर जब चण्डीगढ़ जाना होता है। पंजाब में बिताए वे दिन बहुत याद आते हैं, जब हम सब छुट्टियों में अपने लुधियाना वाले फॉर्महाउस में इकट्ठा होते थे। 
अभी तक के किस किरदार से संतुष्ट हैं? 
सबसे। मैंने जितनी भी फ़िल्में की हैं, उनमें ज़्यादातर गंभीर रोल ही अदा किए हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इससे मेरी ग्रोथ कहीं-न-कहीं रुक सकती है। मुझे कॉमेडी भी करनी चाहिए और एक्शन भी। हर तरह का किरदार निभाऊंगी तो ख़ुद को संतुष्ट मानूंगी। 
अपनी किस ख़ूबी से प्यार है?
मेरे ख़याल से मैं सच्ची और ईमानदार हूं और यही मेरी ख़ूबी है।
आने वाले पांच साल में ख़ुद को कहां देखती हैं?
शायद मेरी शादी हो चुकी होगी, पर मैं इसी तरह काम कर रही होऊंगी।
...कब कर रही हैं शादी?
फिलहाल तो नहीं, लेकिन जब भी करूंगी तो आपको ज़रूर बुलाऊंगी।
सबसे बड़ा सपना?
मैं रोज़ नए-नए सपने देखती हूं, लेकिन स्वभाववश मैं संतुष्ट रहने वाली इंसान हूं। जितना है, उसमें ख़ुश रहने की कोशिश करती हूं। बहुत इच्छाएं होतीं तो एक-साथ कई फ़िल्में साइन कर चुकी होती। मुझे पैसे कमाने का लालच नहीं है, कम लेकिन अच्छा काम ही मेरा सपना है। मैं जब तक चुस्त-दुरुस्त हूं, फ़िल्में करना चाहती हूं क्योंकि मैं फ़िल्मों में ही सोती-जागती और जीती हूं। एक अदाकार के जीवन में संघर्ष हमेशा रहता है। हमें हर फ़िल्म में ख़ुद को साबित करना पड़ता है। कोशिश रहती है कि मैं और बेहतर कर सकूं, अपने अभिनय में और सुधार ला सकूं। काम करती रहूं और दर्शक मेरे काम को सराहते रहें, यही इच्छा है। 
प्रिय किताबें?
कॉमिक्स, आर्ची मेरी पसंदीदा है।
प्रिय फ़िल्में?
लम्हे, गाइड, और चालबाज़
पसंदीदा गायक?
गुलाम अली ख़ान की बहुत बड़ी फैन हूं। उनकी सब ग़ज़लें पसंद हैं।
प्रिय अभिनेता/अभिनेत्रियां?
आमिर ख़ान, ऋतिक रोशन और रणबीर कपूर। अभिनेत्रियों में रेखा, श्रीदेवी, तब्बू, विद्या बालन और करीना कपूर।
जीवन का अर्थ?
जियो और जीने दो। 

(दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका 'अहा ज़िंदगी' के जुलाई 2012 अंक में प्रकाशित)

Friday, July 6, 2012

लावा के मार्फ़त जावेद अख्तर की वापसी.... !

 
प्यास की कैसे लाए ताब कोई
नहीं दरिया तो हो सराब कोई

शाइरी के शौकीनों के लिए जावेद अख़्तर का नया गज़ल/नज़्म संग्रह ‘लावा’ बेशक एक दरिया ही है, सराब तो (मृगतृष्णा) कतई नहीं। एक मुद्दत बाद जावेद अख़्तर हाजिर हैं,लगभग सत्रह बरसों बाद। वैसे उनकी ये हाजिरी मजमूए के साथ तो सत्रह बरस लम्बी हो सकती है वरना अपने फिल्मी सफर के साथ उनका साथ रोज-रोज का है,चाहे वो उनके फिल्मी गीत हों, पटकथा हो, संवाद हो, रियल्टी शो हो, सेमिनार हो,अखबारों में किसी मुद्दे पर प्रतिक्रया हो या फिर टेलीविजन पर कोई चैट शो हो।
बहरहाल  जावेद अख़्तर ‘लावा’ के मार्फत फिर एक बार चर्चे में हैं।
अपने अदबी प्रशसंकों को ध्यान में रखकर ही जावेद साहब ने ‘लावा’ को पेश किया है। वे ये खूब जानते हैं कि अदब की महफिल में हल्कापन नहीं चल सकता सो उन्होंने ‘लावा’ के जरिए वाकई जांची-परखी चीजें परोसी हैं। वे इस संग्रह की भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘शायरी तो तब है कि जब इसमें अक्ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उन्हें तन्हा छोड़ दिया गया है। इसमें असंगति है मगर ‘‘बेखु़दी-ओ-हुशियारी ,सादगी-ओ-पुरकारी,ये सब एक साथ दरकार हैं।’’ तो जाहिर है कि शाइर अपनी जिम्मेदारी से वाकि़फ़ है। के साथ बनाये हुए हैं। जावेद साहब ये भी जानते हैं कि कौन सी चीज ‘पब्लिक’ को पसंद आती है और कौन सी चीज ‘अदबी’ लोगों को
ग़ज़ल के रवायती मिज़ाज के साथ-साथ जावेद साहब के नये-नये प्रयोग ‘लावा’ की जान हैं। वे जब यह लिखते हैं कि " जिधर जाते हैं सब, जाना उधर अच्छा नहीं लगता/ मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता" और "ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना,हामी भर लेना/ बहुत हैं फा़यदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता" तो जाहिर कर देते हैं कि ‘लावा’ के जरिए वे क्या कुछ नया देने वाले हैं। नये प्रयोगों का मज़ा इस शेर में लीजिए- "पुरसुकूं लगती है कितनी झील के पानी पे बत/पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए।" पानी के ऊपर बतख की ख़ामोशी और पानी के अन्दर उसके पैरों की हलचल को शायर कि
स तरह महसूस करता है और किसी खूबसूरती से व्यक्त करता है यही जावेद अख़्तर का करिश्मा है। दोस्ती- दुश्मनी के रंग उर्दू शाइरी में भरे पडे़ हैं, मगर जा़वेद के जाविए से इस रिश्ते का एक नया रंग देखें- "जो दुश्मनी बखील से हुई तो इतनी खैर है/ कि जहर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा।"

ग़ज़ल की रिवायत को निभाना है तो जाने-अनजाने रिश्तों की,दिल की ,इश्क की गलियों से गुजरना हो ही जाता है। इस अहसास को जावेद अलग अलग तरीके से जाहिर करते हैं- "बहुत आसान है पहचान इसकी/ अगर दुखता नहीं तो दिल नहीं है" या "फिर वो शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे/ अजीब बात हुई है उसे भुलाने में" और इस शेर के तो क्या कहने हैं- "जो मुंतजिर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा/ कि हमने देर लगा दी पलट के आने में।"

सफर में हरेक आदमी है। सफर-मंजिल का यह रिश्ता शाइरी की जान रहा है। इस मजे़दार सिलसिले को कुछ इस तरह वुसअत देते हैं कि "मुसाफि़र वो अजब है कारवाँ में/ कि जो हमराह है शामिल नहीं
है।"

चित्रपट और अदब की दुनिया में जावेद़ अख़्तर बहुत बड़ा नाम है। उनके पीछे कही न कही जां निसार अख्तर, मजाज का नाम भी जुड़ा रहता है। 17 जनवरी 1945 को ग्वालियर मे जन्मे जावेद अख़्तर का अलीगढ़, लखनऊ, भोपाल के बाद मुंबई तक का सफर जिन्दगी जीने के तरीकों की अपनी अनोखी दास्तान है। जिन्दगी जीने के अन्दाज के बारे में उनसे बेहतर और कौन बता सकता है। उनका ये शेर इसी नसीहत की बानगी है- "अब तक जि़न्दा रहने की तरकीब न आई/ तुम आखि़र किस दुनिया में रहते हो भाई ।" आदमी को परखने का अहसास बहुत नाजुक होता है। जावेद जब यह कहते है कि " लतीफ़ था वो तख़य्युल से,ख्वाब से नाजु़क/ गवाँ दिया उसे हमने ही आज़माने में तो इस नाजुकी का अहसास शिद्दत से होता है।"

तन्हाई का आलम और हिज्र की बातें शायरी के लिये मुफ़ीद जमीन बनाती हैं। इन
अनुभवों को महसूस करना शायरी के लिये बेहद जरूरी है। ‘लावा’ के वसीले से जावेद साहब इकरार करते है कि- "बहस,शतरंज, शेर ,मौसी़की/ तुम नहीं थे तो ये दिलासे रहे" और "आज फिर दिल है कुछ उदास-उदास/ देखिए आज याद आए कौन ।" लेकिन इस तन्हाई को सूफियाना और रूहानी जामा पहनाना हो तो भी जावेद अख़्तर कमतर नहीं पड़ते- "बदन में कै़द खु़द को पा रहा हूँ / बड़ी तन्हाई है,घबरा रहा हूँ ।"

वक्त के साथ सब कुछ बदलता है। वक्त त के साथ आदमी, समाज, गांव, नगर, जरूरतें सभी का नक्षा बदला है। इन बदलावों को लेकर उनकी नजर-नीयत बिल्कुल साफ है। तभी तो वे इन परिवर्तनों के लिये सच्ची बात कहते हैं कि- "तुम अपने क़स्बों में जाके देखो वहां भी अब शहर ही बसे हैं/ कि ढूँढते हो जो ज़िन्दगी तुम वो ज़िन्दगी अब कहीं नहीं है ।" जि़द और जु़नून जावेद के वे हथियार हैं जो न केवल उनके व्यक्तित्व/ शख्सियत में बल्कि उनकी शायरी में पूरे जोशोखरोस के साथ प्रकट होते हैं . वे कहते हैं - "जो बाल आ जाए शीशे में तो शीशा तोड़ देते हैं/ जिसे छोड़ें उसे हम उम्रभर को छोड़ देते हैं ।"

लफ्जों के जरिये इमेजेज खीचने में जावेद अख़्तर की कोशिशें बेहतरीन हैं। दो मिसरों में पूरी की पूरी तस्वीर खींचने में जावेद साहब का हुनर कमाल का है। ये शेर देखें जिनमे वे दो मिसरों में पू
रा पोर्ट्रेट सा खींच देते हैं- "शब की दहलीज़ पर शफ़क़ है लहू/ फिर हुआ क़त्ल आफ्ताब कोई" या "फिर बूँद जब थी बादल में ज़िन्दगी थी हलचल में/ कै़द अब सदफ़ में है बनके है गुहर तन्हा ।" यही करिश्मा इन शेरों में भी झलकता है- "थकन से चूर पास आया था इसके/ गिरा सोते में मुझपर ये शजर क्यों और कैसे दिल में खु़षी बसा लूं मैं/ कैसे मुट्ठी में ये धुंआ ठहरे ।"
एक कमी जरूर उनके प्रशंसकों को अखर सकती है वो है कुछ शेरों में दोहराव। दोहराव इस मायने मे क्योंकि उनके पहले गज़ल़/नज़्म संग्रह ‘तरकश ’ के कुछ शेर यहाँ भी जस के तस मौजूद हैं। जिन्होंने ‘तरकश ’ को पढ़ा है उन्हें ‘लावा’ मे यह दोहराव खटक सकता है। ‘तुम्हें भी याद नहीं..............’ जैसे कई शेर पहले ही काफी मकबूल हैं उन्हे इस संग्रह मे फिर से प्रस्तुत करना जरूरी नहीं था। ‘लावा’ की खूबसूरती केवल शेर-नज़्मों-कतअ तक ही नहीं सिमटी है। इस मज्मूअ के कवर पेज पर उनकी तस्वीर( जो बाबा आज़्मी ने खींची है) लाजबाव है जो पाठकों को सहज ही अपनी ओर खींचती है। पूरे कलेवर व साज सज्जा के लिये प्रकाषक राजकमल बधाई के पात्र हैं।
जावेद अख़्तर की नज्में जादू की तरह असर करती हैं । उनका कथ्य और विषय दोनों ही
इतने स्पष्ट होते हैं कि नज़्म के आखिरी सिरे तक आते आते पाठक नज़्म से अहसासो के तौर पर चस्पा हो जाता है, एकाकार हो जाता है। इस संग्रह की नज्में शबाना, अजीब आदमी था वो (कैफी आज्मी के लिये) इस बात की गवाह है।
आज सवेरे से
बस्ती मे

कत्लो-खूं का
चाकूजनी का
कोई किस्सा नहीं हुआ है
खै़र

अभी तो शाम है
पूरी रात पड़ी है।
लावा के मार्फत जावेद अख़्तर ने वो नज़्म भी सौगात मे दी है जो उन्होने 15 अगस्त 2007 को संसद मे उसी जगह से सुनाई थी जहां से कभी 15 अगस्त 1947 को आजादी का ऐलान किया गया था। वे इस नज़्म मे कहते हैं-है थोड़ी दूर अभी सपनों का नगर अपना/ मुसाफिरों अभी बाकी है कुछ सफर अपना तो लगता है कि उनकी ग़ज़लें/नज़्मे सच्चाई को बयां करने का कितना हसीं अन्दाज रखती हैं । बहरहाल ‘लावा’ के आखिरी सफहे तक आते आते यह अहसास होता है कि --

कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ
कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं

Sunday, July 1, 2012

चैनलों का विज्ञापनीय अत्याचार

चैनलों और विज्ञापनों के बीच चोली-दामन का साथ है. मतलब यह कि जहाँ चैनल हैं, वहाँ विज्ञापन हैं और जहाँ विज्ञापन हैं, वहाँ चैनल हैं. हालाँकि दोनों एक-दूसरे की जरूरत हैं लेकिन अधिकांश दर्शकों की विज्ञापनों के प्रति अरूचि और चिढ़ किसी से छुपी नहीं है. विज्ञापनों की भरमार से वे सबसे ज्यादा तंग महसूस करते हैं.
खासकर हाल के वर्षों में चैनलों ने दर्शकों पर विज्ञापनों की बमबारी इस हद तक बढ़ गई है कि अब कार्यक्रमों के बीच विज्ञापन नहीं बल्कि विज्ञापनों के बीच कार्यक्रम दिखता है. हालाँकि दर्शकों के पास रिमोट की ताकत और चैनल बदलने का सीमित विकल्प है लेकिन दर्शक डाल-डाल हैं तो चैनल पात-पात हैं.
चैनलों ने दर्शकों के पास यह सीमित विकल्प भी नहीं रहने दिया है. चैनलों ने एक ही समय विज्ञापन दिखाने और विज्ञापनों के दौरान आवाज़ ऊँची करने से लेकर कार्यक्रमों के दौरान कभी आधी स्क्रीन, कभी पट्टी में और कभी उछलकर आनेवाले विज्ञापनों के रूप में रिमोट की काट खोज ली है. लेकिन इससे दर्शकों की खीज बढ़ती जा रही है.

मजे की बात यह है कि केबल नेटवर्क रेगुलेशन कानून के मुताबिक, चैनल एक घंटे में कुल १२ मिनट से अधिक का विज्ञापन नहीं दिखा सकते हैं जिसमें उनके खुद के कार्यक्रमों/चैनल का विज्ञापन शामिल है. लेकिन शायद ही कोई चैनल इसका पालन करता हो. बड़े चैनलों पर तो एक घंटे के कार्यक्रम/समाचार में २० से २५ मिनट तक का विज्ञापन ब्रेक रहता है और दर्शक खुद को असहाय महसूस करते हैं.   

सेंटर फार मीडिया स्टडीज के एक सर्वेक्षण के अनुसार, पिछले चार वर्षों में छह प्रमुख न्यूज चैनलों पर प्राइम टाइम (शाम ७ से ११ बजे) में औसतन ३५ फीसदी विज्ञापन दिखाया गया जबकि उनकी निर्धारित सीमा २० फीसदी है. एक साल तो विज्ञापनों का औसत ४७ फीसदी तक पहुँच गया.
हैरानी की बात यह है कि केबल कानून के तहत पाबंदी के बावजूद चैनलों की मनमानी पर रोक लगानेवाला कोई नहीं है. नतीजा, दर्शकों पर विज्ञापनों का अत्याचार जारी है. दर्शकों की कीमत पर चैनल कमाई करने में लगे हुए हैं. वे उसमें कोई कटौती करने को तैयार नहीं हैं.
लेकिन दूरसंचार नियमन प्राधिकरण (ट्राई) ने एक ताजा आदेश में चैनलों पर विज्ञापनों की समयसीमा निश्चित करने और विज्ञापन प्रदर्शित करने के तरीके को लेकर कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं.

ट्राई के मुताबिक, चैनल एक घंटे के कार्यक्रम में कुल १२ मिनट से अधिक का विज्ञापन नहीं दिखा सकते हैं और एक विज्ञापन सेशन से दूसरे के बीच कम से कम १५ मिनट (फिल्मों के मामले में ३० मिनट) का अंतराल होना चाहिए.


यही नहीं, चैनल एक घंटे में १२ मिनट के कुल विज्ञापन समय को अगले घंटों में नहीं ले जा सकते और इन १२ मिनटों में चैनलों के खुद के विज्ञापन भी शामिल होंगे. ट्राई ने कार्यक्रमों के बीच कभी आधी स्क्रीन, कभी पाप-अप, कभी पट्टी में आनेवाले विज्ञापनों के अलावा विज्ञापन के दौरान उसकी आवाज़ तेज करने पर भी रोक लगाने की सिफारिश की है.     

जैसीकि आशंका थी, ट्राई की इन सिफारिशों के खिलाफ चैनलों ने सिर आसमान पर उठा लिया है. उन्हें यह अपनी आज़ादी, स्वायत्तता और अधिकारों में हस्तक्षेप लग रहा है. उनका यह भी कहना है कि विज्ञापनों का नियमन ट्राई के अधिकार क्षेत्र से बाहर है क्योंकि यह कंटेंट रेगुलेशन का मामला है.

हालाँकि ट्राई ने चैनलों के इन सभी तर्कों का स्पष्ट और तार्किक उत्तर दिया है लेकिन चैनलों के तीखे विरोध और सरकार के ढुलमुल रवैये को देखते हुए इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि सरकार इन सिफारिशों को लागू करने की पहल करेगी. मतलब यह कि दर्शकों पर विज्ञापनों का अत्याचार जारी रहेगा.

लेकिन सवाल यह है कि क्या दर्शकों का कोई अधिकार नहीं है और यह भी कि वे चैनलों की मनमानी कब तक झेलते रहेंगे?