Tuesday, April 30, 2013

‘कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की’- कमाल अमरोही, खैयाम


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'कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ' ये गीत सन 1977 में बनी फिल्‍म ‘शंकर हुसैन’ का है जिसे कमाल अमरोही ने बनाया था । ये गीत क्‍या है, ख़ालिस शायरी है । इस गाने का शुमार मो. रफी के बहुत मद्धम गानों में किया जाता है । संगीतकार ख़ैयाम ने बहुत कम साज़ों का इस्‍तेमाल करके इस गाने की धुन तैयार की है, जिससे इस नाज़ुक गाने के जज़्बात बहुत असरदार तरीक़े से उभरे हैं । इस तरह के गाने साबित कर देते हैं कि साज़ों का शोर गीत की किस तरह जान लेता है और अगर समझदारी से संगीत-संयोजन किया जाये तो कैसे कोई गीत महान बन जाता है ।

कहने वाले ये कहते हैं कि गीतकार जावेद अख़्तर ने इसी गाने से प्रेरित होकर ‘1942 ए लवस्‍टोरी’ का गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ लिखा था । अगर आप ग़ौर करें तो पाएंगे कि दोनों गीतों की बुनावट एक जैसी है । पर अपने ख्‍यालों और मिसालों में कमाल अमरोही वाक़ई कमाल है ।


मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर
वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी ।।

इस तरह के नाज़ुक मिसरे लिखना किसी आम शायर के बस की बात नहीं है । कमाल
अमरोही तो वो शायर थे जो सेल्‍युलॉइड पर भी कविता रचते थे । और इसकी मिसाल हैं ‘महल’, ‘पाकीज़ा’ और ‘रजिया सुल्‍तान’ जैसी फिल्‍में ।  पढिये ये गीत--
कहीं एक मासूम नाज़ुक-सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर सांवली-सी
मुझे अपने ख्‍वाबों में पाकर
कभी नींद में मुस्‍कुराती तो होगी
उसी नींद में कसमसा कसमसा कर
सरहाने से ताकिये गिराती तो होगी ।।
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।

वही ख्‍वाब दिन के मुंडेरों पे आके
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साज़ सीने की ख़ामोशियों में
मेरी याद से झनझनाते तो होंगे
वो बेसाख़्ता धीमे धीमे सुरों में
मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी ।।
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।

चलो खत लिखें जी में आता तो होगा
मगर उंगलियां कंपकंपाती तो होंगी
क़लम हाथ से छूट जाता तो होगा
उमंगें क़लम फिर उठाती तो होंगी
मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर
वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी ।।
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।

ज़ुबां से अगर उफ निकलती तो होगी
बदन धीमे धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पांव पड़ते तो होंगे
दुपट्टा ज़मीं पर लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बताती तो होगी
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की ।।

सुनिए ये गीत--




Friday, April 26, 2013

शमशाद बेगम : रोशनी की तरह बिखर जाने वाली आवाज

अपनी आवाज से करोड़ों लोगों का मनोरंजन करने वाली मशहूर गायिका शमशाद बेगम का 94 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वे पिछले कुछ वर्ष से बीमार थीं।

शमशाद बेगम
कजरा मोहब्बत वाला, अखियों में ऐसा डाला, मेरी नींदों में तुम, मेरे ख्वाबों में तुम, तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर, हम भी देखेंगे और लेके पहला-पहला प्यार जैसे सदाबहार गीतों की फिल्में और संगीतकार भले ही अलग हैं, लेकिन इनमें एक बात समान है कि इन सभी गीतों को शमशाद बेगम ने अपनी खनकदार आवाज बख्शी है।

अपनी पुरकशिश आवाज से हिंदी फिल्म संगीत की सुनहरी हस्ताक्षर शमशाद बेगम के गानों में अल्हड़ झरने की लापरवाह रवानी, जीवन की सचाई जैसा खुरदरापन और बहुत दिन पहले चुभे किसी काँटे की रह-रहकर उठने वाली टीस का सा एहसास समझ में आता है।

उनकी आवाज की यह अदाएँ सुनने वालों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करती है और उनके गानों की लोकप्रियता का आलम यह है कि आज भी उन पर रीमिक्स बन रहे हैं।

करीब चार दशकों तक हिन्दी फिल्मों में एक से बढ़कर एक लोकप्रिय गीतों को स्वर देने वाली शमशाद बेगम बहुमुखी प्रतिभा की गायिका रही। साफ उच्चारण, सुरों पर पकड़ और अनगढ़ हीरे सी चारों तरफ रोशनी की तरह बिखर जाने वाली शमशाद की आवाज जैसे सुनने वाले को बाँध ही लेती थी। उन्होंने फिल्मी गीतों के अलावा भक्ति गीत, गजल आदि भी गाए।

गायकों और संगीतकारों पर प्राय: यह आरोप लगाया जाता है कि वे संगीत के चक्कर में शब्दों को पीछे धकेल देते हैं या उच्चारण के मामले में समझौता करते हैं, लेकिन शमशाद बेगम के गानों में यह तोहमत कभी नहीं लगाई जा सकी। उस दौर के बेहद मशहूर संगीतकार ओपी नय्यर ने तो एक बार यहाँ तक कहा था कि शमशाद बेगम की आवाज मंदिर की घंटी की तरह स्पष्ट और मधुर है।

सीआईडी फिल्म में लोकधुनों पर आधारित गीत ‘‘ बूझ मेरा क्या नाम रे ’’ गाने वाली शमशाद ने संगीतकार सी रामचन्द्रन के लिए ‘‘ आना मेरी जान.. संडे के संडे ’’ जैसा पश्चिमी धुनों पर आधारित गाना भी गाया, जो उनकी आवाज की विविधता की बानगी पेश करते हैं। इस गाने को हिन्दी फिल्मों में पश्चिमी धुनों पर बने शुरुआती गानों में शुमार किया जाता है।

समीक्षकों के अनुसार शमशाद बेगम की आवाज में एक अलग ही वजन था, जो कई मायने में पुरुष गायकों तक पर भारी पड़ता थी। मिसाल के तौर पर रेशमी आवाज के धनी तलत महमूद के साथ गाए गए युगल गीतों पर स्पष्ट तौर पर शमशाद बेगम की आवाज अधिक वजनदार साबित होती है।

अमृतसर में 14 अप्रैल 1919 में जन्मी शमशाद बेगम उस दौर के सुपर स्टार गायक कुंदनलाल सहगल की जबरदस्त फैन थी। एक साक्षात्कार में शमशाद बेगम ने बताया था कि उन्होंने केएल सहगल अभिनीत देवदास फिल्म 14 बार देखी थी। उन्होंने सारंगी के उस्ताद हुसैन बख्शवाले साहेब से संगीत की तालीम ली।

शमशाद बेगम ने अपने गायन की शुरुआत रेडियो से की थी। 1937 में उन्होंने लाहौर रेडियो पर पहला गीत पेश किया था। उस दौर में उन्होंने पेशावर, लाहौर और दिल्ली रेडियो स्टेशन पर गाने गाए थे। शुरुआती दौर में लाहौर में निर्मित फिल्मों खजांची और खानदान में गाने गाए। वह अंतत: 1944 में बंबई आ गईं।

मुंबई में शमशाद ने नौशाद अली, राम गांगुली, एसडी बर्मन, सी रामचन्द्रन, खेमचंद प्रकाश और ओपी नय्यर जैसे तमाम संगीतकारों के लिए गाने गाए। इनमें भी नौशाद और नय्यर के साथ उनका तालमेल कुछ खास रहा क्योंकि इन दोनों संगीतकारों ने शमशाद बेगम की आवाज में जितनी भी विशिष्टताएँ छिपी थी उनका भरपूर प्रयोग करते हुए एक से एक लोकप्रिय गीत दिए।

नौशाद के संगीत पर शमशाद बेगम के जो गीत लोकप्रिय हुए उनमें ओ लागी लागी (आन), धड़ककर मेरा दिल (बाबुल), तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे (मुगले आजम) और होली आई रे कन्हाई (मदर इंडिया) शामिल हैं।

लोकधुनों और पश्चिमी संगीत का अद्भुत तालमेल करने वाले संगीतकार ओपी नय्यर के संगीत निर्देशन में तो शमशाद बेगम ने मानो अपने सातों सुरों के इंद्रधुनष का जादू बिखेर दिया।

इन गानों में ले के पहला-पहला प्यार (सीआईडी), कभी आर कभी पार (आरपार), कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना (सीआईडी), कजरा मोहब्ब्त वाला (किस्मत), मेरी नींदों में तुम मेरे ख्वाबो में तुम (नया अंदाज) ऐसे गीत हैं जो सुनने वाले को गुनगुनाने के लिए मजबूर कर देते थे।

करीब तीन दशक तक हिन्दी फिल्मों में अपनी आवाज का जादू बिखरने के बाद शमशाद बेगम ने धीरे-धीरे पार्श्व गायन के क्षेत्र से अपने को दूर कर लिया। समय का पहिया घूमते घूमते अब रिमिक्सिंग के युग में आ गया है।

आज के दौर में भी शमशाद के गीतों का जादू कम नहीं हुआ क्योंकि उनके कई गानों को आधुनिक गायकों एवं संगीतकारों ने रीमिक्स कर परोसा और नई बोतल में पुरानी शराब के सुरूर में नई पीढ़ी थिरकती नजर आई।

पेश है शमशाद बेगम और किशोर कुमार की आवाज़ में बेहद खूबसूरत गीत जिसके बोल हैं :
मेरी नीदों में तुम मेरे ख्वाबों में तुम,
हो चुके हम तुम्हारी मोहब्बत में गुम,
 

Wednesday, April 24, 2013

माई री मैं कासे कहूँ.../ मदन मोहन

अगर संगीतकार मदन मोहन के स्वरबद्ध फिल्मों पर गौर किया जाए तो हम पाएँगे की कुछ फिल्मों को छोड्कर इनमें से अधिकतर फिल्में 'बॉक्स ऑफिस ' पर उतनी कामयाब नहीं रही. लेकिन जहाँ तक इन फिल्मों के संगीत का सवाल है, तो हर एक फिल्म में मदन मोहन का संगीत कामयाब रहा, जिन्हे भूरि  भूरि प्रशंसा मिली. सच तो यह है कि मदन मोहन के संगीत में ऐसे कुछ कम चलनेवाले फिल्मों के कई गीत आज कालजयी बन गये हैं.

1970 में एक फिल्म आई थी "दस्तक", जिसका निर्देशन किया था राजिंदर सिंह बेदी ने. संजीव कुमार और रेहाना  सुल्तान अभिनीत यह फिल्म 'बॉक्स ऑफिस' पर बुरी तरह से 'फ्लॉप' रही. लेकिन इस फिल्म के संगीत के लिए मदन मोहन को मिला भारत सरकार की ओर से उस साल के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार. यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है कि  राष्ट्रीय पुरस्कार सभी भाषाओं के फिल्मों को ध्यान में रखकर दिया जाता है. इसका यह अर्थ हुआ कि मदन मोहन केवल 'बोलीवुड' के संगीतकारों में ही नहीं बल्कि देश भर के सभी भाषाओं के संगीतकारों में श्रेष्ठ साबित हुए. बहरहाल हम वापस आते हैं फिल्म दस्तक के संगीत पर. इस फिल्म के गाने बहुत ही ऊँचे स्तर के हैं जिनमें 'मास-अपील' से ज़्यादा 'क्लास-अपील' की झलक है. यह गाने आम जनता में बहुत ज़्यादा चर्चित ना रहे हों, लेकिन संगीत के सुधि श्रोताओं को इन गीतों की अहमियत का पूरा पूरा अहसास है. मजरूह सुल्तानपुरी ने इस फिल्म में गीत लिखे और लता मंगेशकर की पूर-असर आवाज़ ने इन गीतों को मधुरता की चोटी पर पहुँचा दिया. चाहे वो "हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह" हो या फिर शास्त्रीयता का रंग लिए हुए "बैयाँ ना धरो ओ बलमा", हर एक गीत अपने आप में एक 'मास्टरपीस' है. लता मंगेशकर का ही गाया एक और गीत है "माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की", जिसे सुनकर मानो मन एक अजीब दर्द से भर उठ्ता है. लेकिन जो आवाज़ आप इस गीत में सुनेंगे, वो लता मंगेशकर की नहीं बल्कि खुद मदन मोहन की होगी. जी हाँ, इस गीत को मदन मोहन साहब ने भी गाया था, और क्या खूब गाया था. सुनिए यह गीत और महसूस कीजिए दर्द में डूबे किसी दिल की पुकार! 



Tuesday, April 23, 2013

आपकी की नजरो ने समझा प्यार के काबिल मुझे.../ मदन मोहन

मदन मोहन ने अपने ढाई दशक के सिनेमा कैरियर में 100 से अधिक फिल्मों के लिए संगीत दिया। लेकिन संगीतकार मदनमोहन का 'आपकी नजरो ने समझा प्यार के काबिल मुझे' गीत से संगीत सम्राट नौशाद इतने प्रभावित थे कि उन्होंने इस धुन के बदले अपने संगीत का पूरा खजाना लुटा देने की इच्छा जाहिर कर दी थी। मदन मोहन कोहली का जन्म 25 जून 1924 को हुआ था। उनके पिता राय बहादुर चुन्नी लाल फिल्म व्यवसाय से जुडे हुये थे। साथ ही वे बाम्बे टाकीज और फिलिम्सतान जैसे बड़े फिल्म स्टूडियो में साझीदार थे।

लखनऊ आकाशवाणी से शुरू हुआ सफर

घर मे फिल्मी माहौल होने के कारण मदन मोहन भी फिल्मों में काम करके नाम करना चाहते थे, लेकिन पिता के कहने पर उन्होंने सेना मे भर्ती होने का फैसला ले लिया। उन्होंने देहरादून में नौकरी शुरू कर दी। कुछ दिन बाद उनका तबादला दिल्ली हो गया। लेकिन कुछ समय के बाद उनका मन सेना की नौकरी से ऊब गया और वह नौकरी छोड़कर लखनऊ आ गये और आकाशवाणी के लिये काम करने लगे। आकाशवाणी में उनकी मुलाकात संगीत जगत से जुड़े उस्ताद फैयाज खान, उस्ताद अली अकबर खान, बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसी जानी मानी हस्तियों से हुई। इन लोगों से मिलने के बाद उनका रूझान संगीत की ओर हो गया। अपने सपनों को नया रूप देने के लिये मदन मोहन लखनउ से मुंबई आ गए।

मदनमोहन की चहेती रहीं लता

मुंबई आने के बाद मदन मोहन की मुलाकात एस डी बर्मन, श्याम सुंदर और सी रामचंद जैसे प्रसिद्व संगीतकारों से हुई। वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। संगीतकार के रूप में 1950 में प्रदर्शित फिल्म 'आंखें' के जरिये वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने मे सफल हुए। फिल्म आंखें के बाद लता मंगेश्कर मदनमोहन की चहेती पा‌र्श्वगायिका बन गयी और वह अपनी हर फिल्म के लिये लता मंगेश्कर से हीं गाने की गुजारिश किया करते थे। लता मंगेश्कर भी मदनमोहन के संगीत निर्देशन से काफी प्रभावित थीं और उन्हें गजलों का शहजादा कहकर संबोधित किया करती थी।

किशन, मोहन और लता की बनी तिकड़ी

मदनमोहन के पसंदीदा गीतकार के तौर पर राजा मेहंदी अली खान, राजेन्द्र कृष्ण और कैफी आजमी का नाम सबसे पहले आता है। स्वर साम्राज्ञी लता मंगेश्कर ने गीतकार राजेन्द्र किशन के लिये मदन मोहन की धुनों पर कई गीत गाये। जिनमें यूं हसरतों के दाग..अदालत (1958), हम प्यार में जलने वालों को चैन कहां आराम कहां.. जेलर (1958), सपने में सजन से दो बातें एक याद रहीं एक भूल गयी..गेटवे ऑफ इंडिया (1957), मैं तो तुम संग नैन मिला के..मनमौजी, ना तुम बेवफा हो.. एक कली मुस्कुरायी, वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गयी..संजोग (1961) जैसे सुपरहिट गीत इन तीनों फनकारों की जोड़ी की बेहतरीन मिसाल है।

फिल्म अनपढ के गीत ने मचाया धमाल

पचास के दशक में मदन मोहन के संगीत निर्देशन में राजेन्द्र कृष्ण के रचित रूमानी गीत काफी लोकप्रिय हुए। उनके रचित कुछ रूमानी गीतों में कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झंकार लिये.. देख कबीरा रोया (1957), मेरा करार लेजा मुझे बेकरार कर जा.. (आशियाना)1952, ए दिल मुझे बता दे..भाई-भाई 1956 जैसे गीत शामिल हैं। मदनमोहन के संगीत निर्देशन में राजा मेहन्दी अली खान रचित गीतों में आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे..अनपढ़ (1962), लग जा गले..(वो कौन थी) 1964, नैनो में बदरा छाये.., मेरा साया साथ होगा.. मेरा साया (1966) जैसे गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय है।

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों....

मदन मोहन ने अपने संगीत निर्देशन से कैफी आजमी रचित जिन गीतों को अमर बना दिया उनमें कर चले हम फिदा जानो तन साथियों अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों... हकीकत (1965), मेरी आवाज सुनो..प्यार का राज सुनो..नौनिहाल (1967), ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नही.. हीर रांझा (1970) सिमटी सी शर्मायी सी तुम किस दुनिया से आई हो...परवाना (1972), तुम जो मिल गये हो ऐसा लगता है कि जहां मिल गया.. हंसते जख्म (1973) जैसे गीत शामिल है।

जबतक लता है दूसरा कोई नहीं
मदनमोहन से आशा भोंसले को अक्सर यह शिकायत रहती थी कि- आप अपनी हर फिल्मों के लिये लता दीदी को हीं क्यो लिया करते है, इस पर मदनमोहन कहा करते थे जब तक लता जिंदा है मेरी फिल्मों के गाने वही गायेगी। मदनमोहन केवल महिला पा‌र्श्वगायक के लिये हीं संगीत दे सकते हैं वह भी विशेषकर लता मंगेश्कर के लिये हीयह चर्चा फिल्म इंडस्ट्री में पचास के दशक में जोरों पर थी किंतु वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म देख कबीरा रोया में पा‌र्श्व गायक मन्ना डे के लिये कौन आया मेरे मन के द्वारे..जैसा दिल को छू लेने वाला संगीत देकर मदनमोहन ने उनके बारे में फैली धारणा पर विराम लगा दिया।

सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का मिला सम्मान

वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म दस्तक के लिये मदनमोहन सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किये गये। मदन मोहन ने अपने ढ़ाई दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 100 फिल्मों के लिये संगीत दिया। अपनी मधुर संगीत लहरियों से श्रोताओं के दिल में खास जगह बना लेने वाले मदनमोहन 14 जुलाई 1975 को इस दुनिया से जुदा हो गए। उनकी मौत के बाद वर्ष 1975 में हीं मदनमोहन की मौसम और लैला मजनू जैसी फिल्में प्रदर्शित हुयी जिनके संगीत का जादू आज भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करता है।
  सिनेमा के 100 वर्ष पूरे होंने के अवसर पर बन रही फिल्म 'बॉम्बे टॉकीज' में महान संगीतकार स्वर्गीय मदन मोहन के सुपरहिट गानों की धुनें श्रोताओं को एक बार फिर से मंत्रमुग्ध कर देगी।

Sunday, April 21, 2013

बशीर बद्र

 

डॉ. बशीर बद्र (जन्म १५ फ़रवरी १९३६) को उर्दू का वह शायर माना जाता है जिसने कामयाबी की बुलन्दियों को फतेह कर बहुत लम्बी दूरी तक लोगों की दिलों की धड़कनों को अपनी शायरी में उतारा है। साहित्य और नाटक आकेदमी में किए गये योगदानो के लिए उन्हें १९९९ में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।
 इनका पूरा नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। भोपाल से ताल्लुकात रखने वाले बशीर बद्र का जन्म कानपुर में हुआ था। आज के मशहूर शायर और गीतकार नुसरत बद्र इनके सुपुत्र हैं।
डॉ. बशीर बद्र 56 साल से हिन्दी और उर्दू में देश के सबसे मशहूर शायर हैं। दुनिया के दो दर्जन से ज्यादा मुल्कों में मुशायरे में शिरकत कर चुके हैं। बशीर बद्र आम आदमी के शायर हैं। ज़िंदगी की आम बातों को बेहद ख़ूबसूरती और सलीके से अपनी ग़ज़लों में कह जाना बशीर बद्र साहब की ख़ासियत है। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को एक नया लहजा दिया। यही वजह है कि उन्होंने श्रोता और पाठकों के दिलों में अपनी ख़ास जगह बनाई है।

 चन्द शेर - बशीर बद्र साहब के

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये ।
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ज़िन्दगी तूनें मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फ़ैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है ।
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कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

अपना दिल भी टटोल कर देखो
फासला बेवजह नही होता

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कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले लगोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो ।
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दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों ।
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एक दिन तुझ से मिलनें ज़रूर आऊँगा
ज़िन्दगी मुझ को तेरा पता चाहिये ।
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इतनी मिलती है मेरी गज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझ को मेरा महबूब समझते होंगे ।
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वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहनें तो दूसरा ही लगे ।
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लोग टूट जाते हैं एक घर बनानें में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलानें में।
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पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आँखो को अभी ख्वाब छुपानें नहीं आते ।
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तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था.
फ़िर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला ।
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मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उस नें मुझे चाहा बहुत है ।
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सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा,
इतना मत चाहो उसे वो बे-वफ़ा हो जायेगा।

Thursday, April 18, 2013

डॉ. राहत इन्दौरी



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जब से तूने हल्की- हल्की बातें की
यार तबीयत भारी -भारी रहती है



हमारे सर की फटी टोपियों पे तन्ज़ न कर
हमारे ताज अजायब घरों में रखे है

राहत अरबी ज़ुबान का एक लफ़्ज़ है जिसका एक मआनी आराम भी है। निदा फाज़ली ने सच ही कहा है कि "राहत इन्दौरी ने इस आराम को बे-आराम बनाकर अपनी शाइरी की बुनियाद रखी है"।
राहत इन्दौरी का जन्म इंदौर में मरहूम रिफत उल्ला कुरैशी के यहाँ 01 जनवरी1950 में हुआ। बचपन से ही राहत साहब को पढ़ने -लिखने का शौक़ था। एक मुशायरे के सिलसिले में जाँ निसार अख्तर इंदौर आये हुए थे उस वक़्त राहत दसवीं जमात में थे। राहत साहब उनसे मिलने पहुंचे और कहा कि हुजूर, मैं शाइर बनना चाहता हूँ ,मैं क्या करूँ ? जाँ निसार अख्तर साहब ने कहा कि अच्छे शाइरों का क़लाम पढो ,सौ - दो सौ शे'र याद करो। इस पर पंद्रह बरस के राहत ने जवाब दिया ,हुज़ूर मुझे तो हज़ारों शे'र याद है। उस वक़्त जाँ निसार अख्तर ने सोचा भी नहीं होगा कि ये बच्चा एक दिन उनके साथ मंच से मुशायरे पढ़ेगा और दुनिया का मशहूर शाइर हो जाएगा।
राहत इन्दौरी ने एम्.ए उर्दू में किया , पी-एच.डी. की और फिर सोलह बरस तक इंदौर विश्वविद्यालय में उर्दू की तालीम दी। राहत इन्दौरी ने इसके साथ- साथ तक़रीबन दस बरसों तक उर्दू की त्रैमासिक पत्रिका "शाख़ें" का सम्पादन भी किया।

शाइरी से पहले राहत साहब मुसव्विर(चित्रकार ) थे और ये उनकी शाइरी में साफ़ झलकता है क्यूंकि एक चित्रकार और शाइर ही जानते हैं की रंग और लफ़्ज़ों से काग़ज़ से किस तरह गुफ़्तगू की जाती है।
राहत साहब की शाइरी मुशायरों की बेपनाह कामयाबी के बावजूद भी अदब से अलग नहीं हुई है। उनके ये मिसरे इसकी मिसाल है:---
सिर्फ़ खंजर ही नहीं आंखों में पानी चाहिए
ए ख़ुदा दुश्मन भी मुझको खानदानी चाहिए
मैंने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया
इक समन्दर कह रहा था मुझको पानी चाहिए
राहत साहब की शाइरी का एक मिज़ाज कलंदराना भी है। उनके ये अशआर इस बात की तस्दीक करते हैं :--
एक हुकुमत है जो इनाम भी दे सकती है
एक कलंदर है जो इनकार भी कर सकता है
ढूंढता फिरता है तू दैरो - हरम में जिसको
मूँद ले आँख तो दीदार भी कर सकता है
******
फ़क़ीर शाह कलंदर इमाम क्या क्या है
तुझे पता नहीं तेरा ग़ुलाम क्या क्या है
ज़मीं पे सात समन्दर सरों पे सात आकाश
मैं कुछ भी नहीं हूँ मगर एहतमाम क्या क्या है
राहत इन्दौरी ख़ूबियों का दूसरा नाम है तो उनमें ख़ामियाँ भी है। मुनव्वर राना ने सही कहा है कि "एक अच्छे शाइर में ख़ूबियों के साथ साथ ख़राबियाँ भी होनी चाहिए ,वरना फिर वह शाइर कहाँ रह जाएगा ,वह तो फिर फ़रिश्ता हो जाएगा और फरिश्तों को अल्लाह ने शाइरी के इनआम से महरूम रखा है "।
राहत साहब के शे'र मुशायरे में उनसे सुनना एक सुखद अनुभव होता है पर उनको पढ़ना भी सुकून देता है। आम बोलचाल के लफ़्ज़ों को राहत इन्दौरी एक मंझे हुए पतंगबाज़ की तरह अपने कहन की चरखी में ऐसे चढाते हैं कि उनके अशआर आसमान की बलंदियों में ऐसे पतंग की तरह उड़ते हैं जिनकी कोई काट नहीं होती। राहत साहब के कुछ शे'र इस बात का प्रमाण है :----
दोज़ख के इंतज़ाम में उलझा है रात दिन
दावा ये कर रहा है के जन्नत में जाएगा
एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे
वो अलग हट गया आंधी को इशारा करके
ख़्वाबों में जो बसी है दुनिया हसीन है
लेकिन नसीब में वही दो गज़ ज़मीन है
*****
मैं लाख कह दूँ आकाश हूं ज़मीं हूं मैं
मगर उसे तो ख़बर है कि कुछ नहीं हूं मैं
अजीब लोग है मेरी तलाश में मुझको
वहाँ पे ढूंढ रहे है जहाँ नहीं हूं मैं
*****
तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो
फूलों की दुकानें खोलो,ख़ुश्बू का व्यापार करो
इश्क़ ख़ता है तो, ये ख़ता एक बार नहीं, सौ बार करो
*****
हमसे पूछो के ग़ज़ल मांगती है कितना लहू
सब समझते हैं ये धंधा बड़े आराम का है
प्यास अगर मेरी बुझा दे तो मैं मानू वरना ,
तू समन्दर है तो होगा मेरे किस काम का है
*****
अगर ख़याल भी आए कि तुझको ख़त लिक्खूँ
तो घोंसलों से कबूतर निकलने लगते हैं
*****
लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है
******
ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो
*****
न जाने कौन सी मज़बूरियों का क़ैदी हो
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो|

राहत इन्दौरी की अभी तक ये किताबें मंज़रे आम पे आ चुकी है :---
धूप धूप (उर्दू),1978 ,मेरे बाद (नागरी )1984 पांचवा दरवेश (उर्दू) 1993 ,मौजूद (नागरी )2005 नाराज़ (उर्दू और नागरी) , चाँद पागल है (नागरी ) 2011
राहत साहब ने पचास से अधिक फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं जिसमे से मुख्य हैं :-प्रेम शक्ति ,सर ,जन्म ,खुद्दार , नाराज़, रामशस्त्र ,प्रेम -अगन ,हिमालय पुत्र , औज़ार ,आरज़ू ,गुंडाराज, दिल कितना नादान है, हमेशा, टक्कर, बेकाबू , तमन्ना ,हीरो हिन्दुस्तानी, दरार,याराना, इश्क, करीब ,खौफ़,मिशन कश्मीर , इन्तेहा, श.... ,मुना भाई एम् बी बी एस ,मर्डर, चेहरा ,मीनाक्षी ,जुर्म और बहुत से ग़ज़ल और म्यूजिक एल्बम भी।
राहत इन्दौरी को अनेको अदबी संस्थाओं ने नवाज़ा है जैसे :-ह्यूस्टन सिटी कौंसिल अवार्ड ,हालाक -ऐ- अदब -ऐ -जौक अवार्ड, अमेरिका, गहवार -ए -अदब ,फ्लोरिडा द्वारा सम्मान ,जेदा में भारतीय दूतावास द्वारा सम्मान, भारतीय दूतावास ,रियाद द्वारा सम्मान ,जंग अखबार कराची द्वारा सम्मान ,अदीब इंटर-नेशनल अवार्ड ,लुधियाना, कैफ़ी आज़मी अवार्ड ,वाराणसी ,दिल्ली सरकार द्वारा डॉ ज़ाकिर हुसैन अवार्ड ,प्रदेश रत्न सम्मान, भोपाल ,साहित्य सारस्वत सम्मान , प्रयाग,हक़ बनारसी अवार्ड ,बनारस , फानी ओ शकील अवार्ड ,बदायूं , निश्वर वाहिदी अवार्ड ,कानपुर ,मिर्ज़ा ग़ालिब अवार्ड ,झांसी .निशान- ऐ- एज़ाज़ ,बरेली।
ये सच है कि राहत इन्दौरी की शाइरी गैस से भरा हुआ वो गुब्बारा नहीं है जो पलक झपकते ही आसमान से बातें करने लगे। राहत इन्दौरी की शाइरी अगरबत्ती की ख़ुश्बू की तरह आहिस्ता -आहिस्ता फैलती है और हमारे दिल के दरवाज़े खोलकर हमारी रूह में उतर जाती है। आख़िर में राहत साहब के इसी मतले के साथ :---
ज़िन्दगी की हर कहानी बे-असर हो जाएगी
हम न होंगे तो यह दुनिया दर ब दर हो जाएगी
 

Sunday, April 7, 2013

नीले गगन के तले

"नीले गगन के तले धरती का प्यार पले" - कैसे न बनती साहिर और रवि की सुरीली जोड़ी जब दोनों की राशी एक है!!

फ़िल्म जगत में गीतकार-संगीतकार की जोड़ियाँ शुरुआती दौर से ही बनती चली आई हैं। उस ज़माने में भले स्टुडियो कॉनसेप्ट की वजह से यह परम्परा शुरु हुई हो, पर स्टुडियो सिस्टम समाप्त होने के बाद भी यह परम्परा जारी रही और शक़ील-नौशाद, शलेन्द्र-हसरत-शंकर-जयकिशन, मजरूह-नय्यर, मजरूह-सचिन देव बर्मन, साहिर-सचिन देव बर्मन, साहिर-रवि, गुलज़ार-पंचम, समीर-नदीन-श्रवण, स्वानन्द-शान्तनु जैसी कामयाब गीतकार-संगीतकार जोड़ियाँ हमें मिली। इस लेख में आज चर्चा साहिर-रवि के जोड़ी की। कहा जाता है कि जिन लोगों की राशी एक होती हैं, उनके स्वभाव में, चरित्र में, कई समानतायें पायी जाती हैं और एक राशी के दो लोगों में मित्रता भी जल्दी हो जाती है। यह बात ध्रुव सत्य हो न हो, पर अगर गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार रवि के लिए यह बात कही जा रही हो तो ग़लत नहीं लगता। रवि का जन्म ३ मार्च १९२६ में हुआ था और साहिर का ८ मार्च १९२१ को। अर्थात् साहिर रवि से ५ साल बड़े थे। मीन राशी वाले ये दोनों कलाकारों का फ़िल्मकार बी. आर. चोपड़ा के माध्यम से सम्पर्क हुआ और दोनों की जोड़ी बेहद कामयाब रही।

बी. आर. चोपड़ा से पहले भी रवि बहुत सी फ़िल्मों में संगीत दे चुके थे जिनमें देवेन्द्र गोयल की फ़िल्में प्रमुख थीं, पर रवि के करीयर का सफल मोड़ बी. आर. चोपड़ा ही ले आए और रवि का स्तरीय साहित्यिक संगीत हमें चोपड़ा कैम्प की फ़िल्मों में ही सुनने को मिला। रवि से पहले चोपड़ा कैम्प के गीतकार-संगीतकार हुआ करते थे साहिर लुधियानवी और एन. दत्ता। इनके बाद रवि का आगमन हुआ और साहिर-रवि की जोड़ी बनी। 'गुमराह' (१९६३), 'वक़्त' (१९६५), 'हमराज़' (१९६७), 'आदमी और इंसान' (१९६९) जैसी फ़िल्मों के गानें चोपड़ा कैम्प में बने तो चोपड़ा कैम्प के बाहर भी सातवें दशक में साहिर और रवि की जोड़ी ने कई फ़िल्मों में नायाब गानें तैयार किए जिनमें 'बहू बेटी' (१९६५), 'काजल' (१९६५), 'आँखें' (१९६५), 'नील कमल' (१९६५), 'दो कलियाँ' (१९६५) शामिल हैं। चोपड़ा कैम्प में बनने वाली फ़िल्मों में रवि ने मुख्य रूप से पहाड़ी और राग भूपाली का प्रयोग करते हुए बहुत ही सुरीली रचनाएँ बनाईं और साहिर के शाब्दिक सौंदर्य ने उन धुनों में जान डाल दी। 'गुमराह' के "इन हवाओं में इन फ़िज़ाओं में", "ये हवा ये फ़िज़ा ये हवा" और 'वक़्त' के "कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी", "दिन हैं बहार के", "हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए", "आगे भी जाने न तू" जैसे गीत इस बात का उदाहरण है। 'हमराज़' के "नीले गगन के तले धरती का प्यार पले" गीत में तो पहाड़ी और भूपाली, दोनों के सुरों का मिश्रण सुनाई दे जाता है। प्रकृति की सुषमा का इस गीत से बेहतर फ़िल्मी संस्करण और दूसरा नहीं हो सकता।


"नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले, ऐसे ही जग में, आती हैं सुबहें, ऐसे ही शाम ढले", यह न केवल साहिर और रवि की जोड़ी का मील का पत्थर सिद्ध करने वाला गीत रहा, बल्कि इसके गायक महेन्द्र कपूर को भी इस गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था और फ़िल्म 'हमराज़' के गानें शायद महेन्द्र कपूर के करीयर के सबसे महत्वपूर्ण गीत साबित हुए। चोपड़ा कैम्प में शुरु शुरु में रफ़ी साहब ही गाया करते थे। महेन्द्र कपूर के मैदान में उतरने के बाद कुछ गीत उनसे भी गवाए जाने लगे। कहा जाता है कि १९६१ की फ़िल्म 'धर्मपुत्र' के एक क़व्वाली को लेकर रफ़ी साहब से हुए मनमुटाव के बाद बी. आर. चोपड़ा ने आने वाली सभी फ़िल्मों के लिए बतौर गायक महेन्द्र कपूर का चयन कर लिया। रफ़ी साहब की जगह महेन्द्र कपूर को लेकर न बी. आर. चोपड़ा पछताए और महेन्द्र कपूर को भी कुछ लाजवाब गीत गाने को मिले जो अन्यथा रफ़ी साहब की झोली में चले गए होते।

फ़िल्म 'हमराज़' के इस गीत की खासियत यह है कि यह गीत अन्य गीतों की तरह मुखड़ा-अंतरा-मुखड़ा शैली में नहीं रचा गया है। हर अंतरा भी एक मुखड़ा जैसा ही लगता है।

नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले,
ऐसे ही जग में, आती हैं सुबहें, ऐसे ही शाम ढले।

शबनम के मोती, फूलों पे बिखरे, दोनों की आस फले,
नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले।

बलखाती बेलें, मस्ती में खेलें, पेड़ों से मिलके गले,
नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले।

नदिया का पानी, दरिया से मिलके, सागर की ओर चले,
नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले।



कितनी सादगी, कितनी सुन्दरता, कितनी सच्चाई है इन शब्दों में। बस एक सुरीली धुन, और कुछ सीधे-सच्चे बोल ही कैसे एक गीत को अमरत्व प्रदान कर देती है यह गीत इस बात का प्रमाण है। यह गीत भले धुन पे लिखा गया हो पर सुनने में आता है कि साहिर साहब यह बिल्कुल पसंद नहीं करते थे कि धुन पहले बना ली जाए और बोल बाद में लिखे जाए। रवि साहब से जब इसी बात की पुष्टि करने को कहा गया तो उन्होंने बताया, "यह मुझे पता नहीं पर एक बार फ़िल्म 'हमराज़' में ऐसा एक गाना बना था जिसका सिचुएशन कुछ ऐसा था कि पहाड़ों में गीत गूंज रहा है। तो मैंने उनको एक धुन सुनाया और कहा कि यह पहाड़ी धुन जैसा लगेगा और इसको हम गाने के रूप में डाल सकते हैं फ़िल्म में। अगले दिन वे गीत लिखकर ले आए "नीले गगन के तले धरती का प्यार पले"। इस गीत में कोई अंतरा नहीं है, अंतरे भी मुखड़े जैसा ही है। कमाल का गीत लिखा है उन्होंने। वो ही ऐसा लिख कर लाए थे, किसी ने ऐसा लिखने को नहीं कहा था।" इस तरह से बस एक ही धुन पर पूरा का पूरा गीत बन गया। राज कुमार और विम्मी पर फ़िल्माया यह गीत कालजयी बन गया है सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी सादगी की वजह से। यह गीत आज भी इसी बात की ओर इंगित करता है कि किसी गीत के कालजयी बनने के पीछे न तो साज़ों ले महाकुम्भ की ज़रूरत पड़ती है और न ही भारी-भरकम शायरी की; बस एक सच्ची सोच, एक प्यारी धुन, एक मधुर आवाज़, बस, ये बहुत है एक अच्छे गीत के लिए!




Saturday, April 6, 2013

सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता

अमीर मीनाई की एक मशहूर ग़ज़ल है "हालात मैक़दे के करवट बदल रहे हैं", जिसे समय समय पर कई ग़ज़ल गायकों नें गाया है। उनकी एक और मशहूर ग़ज़ल रही है "सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता", जिसे भी ख़ूब मकबूलियत मिली और आज भी ग़ज़लों की महफ़िलों की शान है। इस ग़ज़ल के तमाम शेर ये रहे - 

सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता-आहिस्ता

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख़्त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता

शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तों अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता-आहिस्ता

सवाल-ए-वस्ल पर उनको अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता

हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क़ है इतना
इधर तो जल्दी जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता

वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूँ उन से
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता
 

१९७६ में नवोदित ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह नें 'दि अनफ़ोर्गेटेबल्स' ऐल्बम में इस ग़ज़ल को गा कर बहुत नाम कमाया था। यहाँ तक कि उनकी आवाज़ में यह ग़ज़ल लता मंगेशकर और आशा भोसले, दोनों की सबसे पसन्दीदा ग़ज़ल रही है। फ़िल्मों की बात करें तो १९८२ की प्रसन कपूर निर्मित व एच. एस. रवैल निर्देशित मुस्लिम पार्श्व पर बनी फ़िल्म 'दीदार-ए-यार' में इस ग़ज़ल को लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल नें बहुत ही ख़ूबसूरत फ़िल्मी जामा पहनाया और किशोर कुमार व लता मंगेशकर की युगल आवाज़ें पाकर जैसे ग़ज़ल को चार चाँद लग गए। जगजीत सिंह और 'दीदार-ए-यार', दोनों संस्करणों में एक आध शेर ग़ायब हैं। जगजीत सिंह के संस्करण में चौथा और पाँचवा शेर ग़ायब हैं, जबकि 'दीदार-ए-यार' वाले संस्करण में पाँचवा शेर नहीं है, और छठे शेर में 'अमीर' की जगह "मेरा" का प्रयोग किया गया है। 

इस "आहिस्ता-आहिस्ता" का कई फ़िल्मी शायरों और गीतकारों नें समय-समय पर फ़ायदा उठाया है। संगीतकार अनु मलिक की पहली कामयाब फ़िल्म 'पूनम' में मोहम्मद रफ़ी और चन्द्राणी मुखर्जी से एक ग़ज़ल गवाया था जिसे उनके मामा हसरत जयपुरी साहब नें लिखा था। अमीर मीनाई की इस ग़ज़ल से "आहिस्ता-आहिस्ता" को लेकर हसरत साहब नें लिखा 

"मोहब्बत रंग लायेगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता,
के जैसे रंग लाती है शराब आहिस्ता आहिस्ता"
 

ग़ज़ल के बाक़ी शेर थे -- 

अभी तो तुम झिझकते हो अभी तो तुम सिमटते हो
के जाते जाते जायेगा हिजाब आहिस्ता आहिस्ता

हिजाब अपनो से होता है नहीं होता है ग़ैरों से
कोई भी बात बनती है जनाब आहिस्ता आहिस्ता

अभी कमसीन हो क्या जानो मोहब्बत किसको कहते हैं
बहारें तुम पे लायेंगी शबाब आहिस्ता आहिस्ता

बहारें आ चुकी हम पर ज़रूरत बाग़बाँ की है
तुम्हारे प्यार का दूंगी जवाब आहिस्ता आहिस्ता
 

हसरत जयपुरी के लिखे इन शेरों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे अमीर मीनाई की ग़ज़ल का ही एक एक्स्टेन्शन है। हसरत साहब पुराने शायरों की लाइन उठाने में माहिर थे; मसलन उस्ताद मोमिन ख़ाँ की एक मशहूर ग़ज़ल के ये शेर पढ़िये -- 

असर उसको ज़रा नहीं होता
रंज राह्तफ़ज़ा नहीं होता

तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता

नारसाई से दम रुके तो रुके
मैं किसी से ख़फ़ा नहीं होता

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
 

इस आख़िरी शेर को लेकर हसरत साहब नें लिख डाला "ओ मेरे शाहेख़ुबाँ, ओ मेरी जाने जनाना, तुम मेरे पास होती हो, कोई दूसरा नहीं होता"। वैसे दोस्तों, हसरत साहब से पहले १९६६ की फ़िल्म 'लबेला' में गीतकार आनन्द बक्शी हू-ब-हू ऐसी ही एक ग़ज़ल लिख चुके थे "मोहब्बत रंग लाती है जनाब आहिस्ता आहिस्ता, असर करती है के जैसे शराब आहिस्ता आहिस्ता"। 'पूनम' में हसरत नें "लाती है" को "लायेगी" कर दिया। बक्शी साहब की लिखी फ़िल्म 'लबेला' की पूरी ग़ज़ल यह रही - 

मोहब्बत रंग लाती है जनाब आहिस्ता आहिस्ता
असर करती है के जैसे शराब आहिस्ता आहिस्ता

कोई सुन ले तो हो जाये ज़माने भर में रुसवाई
ये बातें कीजिए हमसे जनाब आहिस्ता आहिस्ता

नज़र मिलते ही साक़ी से बहक जाते थे हम लेकिन
हम ही पीने लगे हैं बेहिसाब आहिस्ता आहिस्ता

सितमगर नाम है जिनका भला वो महरबाँ क्यों हो
उठाने दो हमें रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
 

'दीदार-ए-यार' १९८२ की फ़िल्म थी जिसमें अमीर मीनाई की इस ग़ज़ल का उसके मूल रूप में ईस्तेमाल किया गया था। पर इसके एक साल पहले, १९८१ में निर्माता सिब्ते हसन रिज़वी और निर्देशक ईस्माइल श्रोफ़ नें एक फ़िल्म बनाई थी 'आहिस्ता-आहिस्ता'। ख़य्याम के संगीत में फ़िल्म के नग़में लिखे निदा फ़ाज़ली नें। क्या फ़िल्म का शीर्षक अमीर मीनाई के उस ग़ज़ल से प्रेरित था यह तो अब बताना मुश्किल है, पर फ़िल्म के शीर्षक गीत के लिए उस ग़ज़ल से बेहतर शायद ही कोई और गीत हो! लेकिन फ़िल्म के निर्माता नें ऐसा नहीं किया, बल्कि फ़ाज़ली साहब से उसी अंदाज़ में नए बोल लिखवाए, और ग़ज़ल के बदले लिखवाया गीत। 

नजर से फूल चुनती है नजर, आहिस्ता आहिस्ता
मोहब्बत रंग लाती है मगर, आहिस्ता आहिस्ता

दूवायें दे रहे हैं पेड़, मौसम जोगिया सा है,
तुम्हारा साथ है जब से, हर एक मंज़र नया सा है,
हसीं लगने लगे हर रहगुजर, आहिस्ता आहिस्ता

बहुत अच्छे हो तुम, फिर भी हमें तुम से हया क्यों है,
तुम ही बोलो हमारे दरमियाँ ये फासला क्यों है,
मज़ा जब है के तय हो ये सफर, आहिस्ता आहिस्ता

हमेशा से अकेलेपन में कोई मुस्कुराता है,
ये रिश्ता प्यार का है, आसमां से बनके आता हैं,
मगर होती है दिल को ये खबर, आहिस्ता आहिस्ता
 

अब ज़रा और पुराने समय में चलते हैं। १९३६ में एक फ़िल्म आई थी 'बेरोज़गार' जिसमें संगीतकार थे राम टी. हीरा और गीतकार थे अब्दुल बारी। इस फ़िल्म में एक गीत था "निगाहें हो रही हैं बेहिजाब आहिस्ता आहिस्ता"। गीत के पूरे बोल तो उपलब्ध नहीं है, पर इस एक पंक्ति को पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे कुछ-कुछ इसी अंदाज़ का गीत होगा या ग़ज़ल होगी। 'मधुकर पिक्चर्स' के बैनर तले बनी १९४९ की मशहूर फ़िल्म 'बाज़ार' के लिए बनने वाले कुल १६ गीतों में एक क़व्वाली थी - 

"नज़र से मिल ही जयेगी नज़र आहिस्ता आहिस्ता,
मेरी आहों में आयेगा असर आहिस्ता आहिस्ता"
 

पर इस क़व्वाली को बाद में फ़िल्म से हटा लिया गया था। १९५१ की फ़िल्म 'ग़ज़ब' में इसी क़व्वाली को शामिल किया गया जिसे लता मंगेशकर, ज़ोहराबाई अम्बालेवाली और कल्याणी नें गाया था। फ़िल्म के संगीतकार थे निसार बाज़मी व शौकत दहल्वी (नाशाद) तथा गीतकार थे ए. करीम। १९७१ की फ़िल्म 'बलिदान' में वर्मा मलिक नें एक गीत लिखा था जो था तो एक आम गीत, पर मुखड़े के लिए फिर से उसी "आहिस्ता आहिस्ता" का सहारा लिया गया था। पहला मुखड़ा और हर अंतरे के बाद में आने वाले मुखड़े को मिला कर "आहिस्ता-आहिस्ता" वाली पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -- 

चले आओ दिल में बचा के नज़र आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
ज़माने को होने न पाये ख़बर आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
मोहब्बत का होने लगा है असर आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
खींची जा रही हूँ मैं जाने किधर आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
शुरु हो रहा है ये पहला सफ़र आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
 

इस तरह से अमीर मीनाई की मूल ग़ज़ल "सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता" के कई संस्करण और उससे प्रेरित कई गीत और ग़ज़लें बनीं, पर सभी गीतों और ग़ज़लों को सुन कर और पढ़ कर इस नतीजे पर पहुँचा जा सकता है कि उनकी उस मूल रचना का स्तर ही कुछ और है, उसकी बात ही कुछ और है। १९-वीं सदी में लिखे जाने के बावजूद उसका जादू आज भी बरकरार है, और आज भी जब ग़ज़लों की किसी महफ़िल में इसे गाया जाता है तो लोग "वाह-वाह" कर उठते हैं। 

फ़िल्म 'दीदार-ए-यार' से "सरकती जाये है..." सुनने के लिए नीचे प्लेयर में क्लिक करें...