Monday, August 24, 2015

गुलज़ार साहब के पहले गीत की कहानी

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(गुलजार ने सिनेमाई गीतों को नए प्रतिमान दिए हैं। इनके लिखे पहले गीत के पूरे होने की कहानी रोचक है। आइये, उसे जानें गुलजार की ही कलम से)


बंदिनी फिल्म में बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है। सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई : ललल ला ललल लला ला
'मोरा गोरा रंग लई ले' इस गीत का जन्म वहां से शुरू हुआ जब बिमल-दा और सचिन-दा ने सिचुएशन समझाई। कल्याणी (नूतन) जो मन-ही-मन विकास (अशोक कुमार) को चाहने लगी है, एक रात चूल्हा-चौका समेटकर गुनगनाती हुई बाहर निकल आई।
" ऐसा करेक्टर घर से बाहर जाकर नहीं गा सकता", विमल-दा ने वहीं रोक दिया। "बाहर नहीं जाएगी तो बाप के सामने कैसे गाएगी?" सचिन-दा ने पूछा।
"बाप से हमेशा वैष्णव कविता सुना करती है, सुना क्यों नहीं सकती?" बिमल-दा ने दलील दी।
"यह कविता-पाठ नहीं है, दादा, गाना है।"
"तो कविता लिखो। वह कविता गाएगी"।
"गाना घर में घुट जाएगा।"
"तो आंगन में ले जाओ। लेकिन बाहर नहीं जाएगी।"
"बाहर नहीं जाएगी तो हम गाना भी नहीं बनाएगा।",सचिन-दा ने भी चेतावनी दे दी।
कुछ इस तरह से सिचुएशन समझाई गई मुझे। मैंने पूरी कहानी सुनी, देबू से। देबू और सरन दोनों दादा के असिस्टेंट थे। सरन से वे वैष्णव कविताएं सुनीं जो कल्याणी बाप से सुना करती थी। बिमल-दा ने समझाया कि रात का वक्त़ है, बाहर जाते डरती है, चांदनी रात में कोई देख न ले। आंगन से आगे नहीं जा पाती।
सचिन-दा ने घर बुलाया और समझाया: चांदनी रात में डरती है, कोई देख न ले। बाहर तो चली आई, लेकिन मुड़-मुड़के आंगन की तरफ देखती है।
दरअसल, बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है। सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई : ललल ला ललल लला ला
गीत के पहले-पहले बोल यही थे। पंचम (आर.डी.बर्मन) ने थोड़ा-सा संशोधन किया :
ददद दा ददा ददा दा
सचिन-दा ने फिर गुनगुनाकर ठीक किया :
ललल ला ददा दा लला ला
गीत की पहली सूरत समझ में आई। कुछ ललल ला और कुछ ददद दा-
मैं सुर-ताल से बहरा भौंचक्का-सा दोनों को देखता रहा। जी चाहा, मैं अपने बोल दे दूं:
तता ता ततता तता ता
सचिन-दा कुछ देर हार्मोनियम पर धुन बजाते रहे और आहिस्ता-आहिस्ता मैंने कुछ गुनगुनाने की कोशिश की। टूटे-टूटे से शब्द आने लगे : दो-चार... दो-चार... दुई-चार पग पे अंगन-
दुई-चार पग... बैरी कंगना छनक ना-
गलत-सलत सतरों के कुछ बोल बन गए:
बैरी कंगना छनक ना
मोहे कोसों दूर लागे
दुई-चार पग पे अंगना-
सचिन-दा ने अपनी धुन पर गाकर परखे, और यूं धुन की बहर हाथ आ गई।
चला आया। गुनगुनाता रहा। कल्याणी के मूड को सोचता रहा। कल्याणी के ख्याल क्या होंगे ? कैसा महसूस किया होगा ? हां, एक बात ज़िक्र के काबिल है। एक ख़्याल आया, चांद से मिन्नत करके कहेगी:
मैं पिया को देख आऊं
जरा मुंह फिराई ले चांद
फ़ौरन ख़्याल आया, शैलेन्द्र यही ख़्याल बहुत अच्छी तरह एक गीत में कह चुके हैं :
दम-भर को जो मुंह फेरे-ओ चंदा-
मैं उनसे प्यार कर लूंगी
बातें हजार कर लूंगी-
कल्याणी अभी तक चांद को देख रही थी। चांद बार-बार बदली हटाकर झांक रहा था, मुस्करा रहा था।
जैसे कह रहा हो, कहं जा रही हो ? कैसे जाओगी ? मैं रोशनी कर दूंगा। सब देख लेंगे। कल्याणी चिढ़ गई। चिढ़के गाली दे दी :
तोहे राहू लागे बैरी
मुसकाए जी जलाई के
चिढ़के गुस्से में वहीं बैठ गई। सोचा, वापस लौट जाऊं। लेकिन मोह, बांह से पकड़कर खींच रहा था। और लाज, पांव पकड़कर रोक रही थी। कुछ समझ में नहीं आया, क्या करे? किधर जाए? अपने ही आपसे पूछने लगी:
कहां से चला है मनवा
मोहे बावरी बनाई के
गुमसुम कल्याणी बैठी रही। बैठी रही, सोचती रही, काश, आज रोशनी न होती। इतनी चांदनी न होती। या मैं ही इतनी गोरी न होती कि चांदनी में छलक-छलक जाती। अगर सांवली होती तो कैसे रात में ढंकी-छुपी अपने पिया के पास चली जाती। लौट आई बेचारी कल्याणी, वापस घर लौट आई। यही गुनगुनाते :
मोरा गोरा रंग लई ले
मोहे श्याम रंग दई दे।।
एक बार पूरे  गाने का आनंद लीजिये 



Tuesday, July 14, 2015

हेमलता


हेमलता अब बाज़ार से लगभग गुम हैं। न नए गाने गा रही हैं, न ही किसी तरह की खबरों में ही उपस्थित हैं वह। सार्वजनिक जीवन या व्यक्तिगत जीवन भी उन का किसी को मालूम नहीं है आसानी से। पर उन के गाए गाने आज भी ज़िंदा हैं, बजते मिलते रहते हैं जब-तब, जहां-तहां। कानों और मन में मिठास बोते हुए। उन की गायकी आज भी पुकारती है। वर्ष १९९७ में वह एक कार्यक्रम के सिलसिले में लखनऊ आई थीं। तभी दयानंद पांडेय ने उन से यह बातचीत की थी। तब उन की नई-नई दूसरी शादी हुई थी। यह बातचीत उन के नए-नवेले पति दिलीप जी के सामने ही हुई थी। वह जैसे नई शादी की चहक में कुहुक रही थीं, मचल रही थीं। बावजूद इस चहक के वह अपने पहले पति योगेश और रवींद्र जैन के द्वारा दी गई यातना की आंच में दहक-दहक जाती थीं। रवींद्र जैन द्वारा उन का किया गया चौतरफा शोषण रह-रह कर उन की जुबान पर चढ़ जाता था। यह बातचीत थोड़ी पुरानी ज़रुर है पर बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी अगर आज की बातचीत में होतीं। आज भी उतनी ही टटकी हैं। लगता है जैसे हेमलता जी से यह बातचीत कल ही हुई हो। पेश है बातचीत :

‘अखियों के झरोखों से मैं ने देखा जो सांवरे, तुम दूर नज़र आए, बड़ी दूर नजर आए’ और नदिया के पार में ‘पहुना हो पहुना’ जैसे मीठे गीत गाने वाली हेमलता आज कल सपनों के एक नए गांव में एक नई गायिकी और एक नए दांपत्य के साथ उपस्थित हैं। कोई अड़तीस भाषाओं में गाना गाने वाली सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका हेमलता दरअसल इन दिनों अपने कैरियर के दूसरे दौर में हैं। पर वह मानती हैं कि यह दूसरा दौर हमारा गोल्डेन पीरियड है। दरअसल हेमलता न सिर्फ अपनी गायिकी के कैरियर का दूसरा दौर जी रही हैं बल्कि अपनी ज़िंदगी का भी दूसरा दौर वह जी रही हैं। उन्हों ने यह दूसरी शादी की है और अपने इस दूसरे दांपत्य से वह बेहद खुश हैं। वह कहती भी हैं कि, ‘शब्दों में इसे कहा नहीं जा सकता। न आप लिख सकते हैं, न मैं कह सकती हूँ। पर अब पता चला है कि शादी क्या होती है, सुरक्षा क्या होती है जो हर पत्नी को मिलनी चाहिए। अब पता चला है। यह सब श्री माता जी के आशीर्वाद का फल है। मां ने मुझे नया जीवन दिया है।'

हेमलता बताती हैं कि, ‘एकदम से जैसे सब कुछ अपने आप होता चला गया। मैं भी आजिज हो गई थी। वह जो ‘अवेविलिटी’ (उपलब्धता) का बोर्ड माथे पर लटका पड़ा था, कि खंभे से भी बात करो तो शक। अब मैं अभय हूँ। बहुत ही खुशी सम्मान के साथ मिली है। अपने समाज में विधवा होना सचमुच बहुत बड़ा अपराध है। खास कर युवा विधवा के लिए। हर कोई उसे अपनी जागीर समझता है। पर मैं अपने पारिवारिक संस्कारों में जकड़ी हुई थी। दूसरे विवाह को गलत मानती थी, अपराध जैसा कुछ। तो उस के लिए तैयार नहीं थी। विवाह को ले कर, पति को ले कर, मेरे मन में जो एक डर था, खौफ था, शायद झूठ-मूठ का खौफ था, शायद पिछले दांपत्य का जो अनुभव था, उन सब को ले कर मैं बहुत सशंकित थी। पर अब लगता है कि यह दूसरी शादी का फ़ैसला बहुत पहले ले लेना चाहिए था।' हेमलता दरअसल ज़िंदगी और गायकी दोनों ही के मोड़ पर आहत रही हैं और बेहद तनाव जीती रही हैं। गायकी में तमाम गायिकाओं की तरह हेमलता को भी ‘मंगेशकर बैरियर’ तो पार करना ही था पर हेमलता को एक और बैरियर भी पार करना था, संगीतकार रवींद्र जैन के शोषण का बैरियर। हालां कि अब वह रवींद्र जैन के शोषण बैरियर को भी पार कर चुकी हैं और मंगेशकर बैरियर तो जाने कब का पार कर लिया था। लेकिन रवींद्र जैन के शोषण को आज भी वह भूल नहीं पातीं। न ही अपने पहले बिखरे दांपत्य को। तो पहले उन के बीते दांपत्य के बिखराव की चर्चा।

वह खुद ही बताती हैं कि, ‘शादी के फेरों के बाद वह चार दिन ससुराल में रहीं। फिर सात साल पीहर में गुज़ारे। दरअसल मेरा विवाह बड़ी हड़बड़ी में हुआ और मेरी मर्जी से नहीं हुआ। दरअसल योगिता बाली के भाई योगेश ने मुझे मेरे भाई की इंगेजमेण्ट पार्टी में देखा और कहा कि शादी करुंगा तो हेमलता से। पर मैं तैयार नहीं थी। कई बातें थी। पर बड़ी बात यह थी कि घर में मैं ही एकमात्र अर्निंग मेंबर थी। छोटे तीन भाई थे। कैरियर था गा रहे थे। पर पैसे कहाँ थे? पर योगेश जी ज़िद पर अड़े रहे। तो तय हुआ कि इंगेजमेंट के पांच साल बाद शादी होगी। तो उन्हों ने हां कर दिया। पर इंगेजमेंट के बाद ही वह अड़ गए कि 48 घंटों में शादी करिए नहीं इंगेजमेंट तोड़ देंगे। तो बाबा ने शादी करवा दिया। पर शादी के चार दिन बाद ही ससुराल से वापस लौटा दिया। सात साल पीहर में रही। यह बात दूर दूर तक फैल गई। पर मेरे पास यह सब सोचने के लिए समय नहीं था न! तब तो मैं स्टार गायिका हो गई थी। फिर कोई छह बरस बाद अचानक उन का आविर्भाव हुआ। कंप्रोमाइज की बातें की। माफिया मांगीं। जैसा कि होता है, मां बाप की मर्जी मान कर जाना पड़ा। फिर जब दुबारा गई ससुराल तो उस का शुभ परिणाम भी मिला। एक बेटा आदित्य मिला जो अब 15 साल का है और नौवीं में पढ़ता है। पर जब बेटा छह महीने का था, तभी पीहर फिर वापस आना पड़ा। जब बेटा छह साल का हुआ तो उस के पिता का निधन सिरोसिस ऑफ लिवर की बीमारी से हो गया।

यही वह वक्त था जब जनवरी 1989 से ले कर आने वाले तीन साल तक मैं एक तरह से साइलेंस में चली गई। यह सदमा बर्दाश्त नहीं हुआ। लेकिन फिर हम कलाकारों के साथ होता ही है कि ‘शो मस्ट गो ऑन’ तो मेरे होशो हवास वापस आए, वाणी वापस आई। सात सुरों के बीच रहने की राह निकल आई। और सब से बड़ी बात यह हुई कि 1990 में माता निर्मला से मेरा साक्षात्कार हुआ। यह मेरे लिए बड़ा मुश्किल वक्त था। फ़िल्म इंडस्ट्री का माहौल बिगड़ चुका था। लड़ाई टैलेंट की नहीं, संगीतकारों की नहीं बल्कि कंपनियों की चल रही थी। और एक व्यवसाई तो संगीत समझने से रहा। गुलशन कुमार या चंपू जी संगीत को कोई जस्टिफिकेशन दें, तो इन्हें कनविंस करना मेरे वश की बात नहीं थी। ऐसे माहौल में श्री माता जी का आशीर्वाद मुझे मिला। माँ ने मुझे नया जीवन दिया। मेरा अभ्यास पहले दिन की तरह शुरु हो गया, वह लगन बरकरार रही। और जो मेरा यह दूसरा विवाह हुआ है इस में श्री माता जी के अलावा 50 प्रतिशत मेरी सास का हाथ है। दिलीप जी मुझे मेरे पहले पति योगेश जी के घर से ही विदा करा कर लाए। मेरी पुरानी सास पढ़ी-लिखी हैं, मेरी ननद योगिता बाली मुझ से बहुत प्यार करती हैं। और जब मैं विधवा हुई थी तो योगिता ही सब से पहली व्यक्ति थीं जिन्हों ने मुझ से कहा ‘शादी तुरंत करो।’ शायद इस लिए भी कि योगिता-मिथुन का ‘पास्ट’ था। पर आज दोनों खुश हैं। फिर मेरे दिमाग में रिमैरेज एक बहुत बड़ा टैबू थी, हव्वा थी। कभी-कभी लगता है कि श्री माता जी की बात पहले क्यों नहीं मान ली।'

‘अगर योगेश जी जीवित होते तो भी क्या आप दिलीप जी से दूसरी शादी कर सकती थीं?’ पूछने पर हेमलता बोलीं, ‘बिल्कुल कर सकती थी। करना चाहिए था मुझे। नहीं कर के गलती की थी। क्यों कि मैं इसे धर्म से जोड़ कर देखती थी। तथाकथित परंपरा और संस्कारों को निभा रही थी। पर सच यह है कि धारणा से ही धर्म होता है। ‘धारायति इति धर्म:।’ कितना पहले दूसरी शादी कर लेनी चाहिए थी? हेमलता बोलीं, ‘उन चार दिनों के बाद ही। अप्रैल 1973 में। पर तब डिवोर्सी शब्द से भय था। छोड़ी हुई औरत के धब्बे से नहीं डरती तब तो अच्छा था। पर तब तो धर्म यह था कि, मेरा पति देवता है।’ वह बोलीं, ‘जब दूसरी बार योगेश जी मुझे लेने आए थे तो मैं ने उन से दो सवाल पूछे थे। पहला यह कि मुझे क्यों छोड़ा? और दूसरा यह कि अब क्यों लेने आए हो? मेरा सिंगर होना अगर अयोग्यता थी तो ब्याह क्यों किया? जो जवाब उन्हों ने दिया वह कल्पना से परे था। तुम ने कहा था कि पांच साल बाद शादी करोगी तो पांच साल के लिए तुम्हें भेज दिया था। मैं ने कहा कि यह बात इंगेजमेंट के बाद कही थी, शादी के बाद नहीं। तो कहने लगे तुम जैसी लड़की को मिस नहीं करना चाहता था। और जानता था कि विवाह के बाद तुम मुझे छोड़ोगी नहीं।’

यह पूछने पर कि ‘तो क्या उन के इस कहे में आप को ईमानदारी दिखी थी?’ पूछने पर हेमलता बोलीं, ‘उनके इस कहे में ईमानदारी ढूंढ लेना ही तब भलाई थी। परिवार की इज्जत थी’। ‘मंगेशकर बैरियर कैसे तोड़ा आप ने?’ पूछने पर वह बोलीं, मैं ने नहीं तोड़ा। सब कुछ अपने आप हो गया। पर यह सही है कि मंगेशकर बैरियर था एक समय। सोलो तो छोड़िए कोरस भी उन्हीं की मर्जी से गाया जा सकता था। पर राजश्री ने मेरी मदद की और यह सिलसिला शुरु हुआ ‘गीत गाता चल से’ तो भी मेरी बात तो बनी ही नहीं थी। फिर चितचोर में दो गाने डुएट गाए तो लाइमलाइट में आई। हालां कि 1969-70 में विश्वास फ़िल्म में मुकेश के साथ ‘ले चल मेरे जीवन साथी ले चल’ तेरह साल की उम्र में कल्याण जी आनंद जी के संगीत में गाया था। फिर उषा खन्ना के संगीत में ‘एक फूल एक भूल’ फ़िल्म में ‘दस पैसे में राम ले लो’ गाया था, तीसरा गाना ‘जीने की राह’ फ़िल्म में ‘चंदा को ढूंढने सभी तारे निकल पड़े’ गाया था। एस. डी. बर्मन के संगीत में ज्योति फ़िल्म में भी गाया। पर लाइम लाइट में आई फकीरा फ़िल्म के गाने से, ‘फकीरा चल चला चल।’ मेरा गांव, मेरा देश और कच्चे धागे जैसी फ़िल्मों में कई हिट गीत इस के पहले गाए थे।

हालां कि 1968 में नौशाद साहब ने मुझ से पांच साल का एग्रीमेंट कराया था कि मैं कहीं और नहीं गाउंगी। पर 1969 में यह एग्रीमेंट डिसओबे करना पड़ा। क्यों कि जब सभी बारी-बारी नाराज होने लगे तो लक्ष्मीकांत जी ने मेरे पिता से कहा कि इन पांच सालों में किस-किस को नाराज करेंगे? हालां कि नौशाद साहब मेरे लिए कहते थे कि हेमलता में क्वालिटी ऑफ लता मंगेशकर और दि इनोसेंस ऑफ नूरजहां दोनों है। चूंकि मुझे लाने वाले नौशाद साहब थे तो लोगों ने बगैर मुझे सुने सिंगर मान लिया। पर एग्रीमेंट तोड़ने का नौशाद साहब ने आज तक बुरा नहीं माना। कम से कम मुझ से कुछ नहीं कहा। देखिए बड़े लोग कितने महान होते हैं। बावजूद इस के उन्हों ने फकीरा में मुझे चांस दिया। जब कि तब वह बहुत हर्ट थे। पर मैं आज तक हर्ट हूँ। इस बात का दुख हमेशा रहेगा। पर यह फ़ैसला मेरा नहीं, मेरे पिता का था।

‘रवींद्र जैन से आप का अलगाव क्यों हुआ?'  पूछने पर हेमलता बोलीं, ‘शोषण की स्थिति इस सीमा तक चली गई कि मन खराब हो गया। वह मेरे बाबा के शिष्य थे, और मेरे गुरु। मुझ से गलती यह हुई कि काम और व्यापार में मैं ने संबंधों का महत्व निभाना शुरु कर दिया । जिन हालातों में मैं जी रही थी, यही इंप्रेशन था कि एक वही परिवार है जो मुझे प्यार करता है। लेकिन जब यह भ्रम टूटा तो अपनी ओर लौटने का मौका मिला। होता यह था कि मेरी सारी मेहनत, सारा एफर्ट उन्हीं के नाम से जाना जाता था। ‘उन से अलग होने की कीमत भी क्या चुकानी पड़ी है आप को?' पूछने पर वह बोलीं, ‘अलग होने की कीमत तो नहीं पर उन से जुड़ने की कीमत ज़रूर चुकाई है। कहीं बहुत ज़्यादा। जहां सौ रुपए मिलते थे वहां बहुत मुश्किल से पांच रुपए दिए गए। लोगों ने मुझे एक ग्रुप की सिंगर कह कर काट दिया। फ़िल्म इंडस्ट्री के कुछ गंदे स्ट्रेट मेकर्स भद्दे कमेंट्स के जरिए अपमानित करते हैं, उन का भी शिकार बनना पड़ा कुछ दिनों के लिए। लेकिन बात में न सत्य था न तथ्य। तो हम अपनी जगह पर जमे रहे। काम करते रहे। पर चारो ओर से मेरे कैरियर को काटना शुरू किया गया। मेरे टेलीफ़ोन पर गलत जवाब जाते थे। 1942 ए लव स्टोरी के लिए आर. डी बर्मन ने मुझे कई बार तलाशा। कोई ग्यारह महीने तक वह तलाशते रहे पर ‘नहीं है’ का जवाब उन्हें मिलता रहा। तो इस तरह की मेरे खिलाफ साजिश चलती रही।’

‘पर कहा जाता है कि रवींद्र जैन ने आप को कैरियर दिया है?’ पूछने पर बह झल्ला कर बोलीं, ‘रवींद्र जैन के साथ जब गाना शुरू किया उस से पहले कोई एक हज़ार गाने मैं गा चुकी थी’। यह पूछने पर कि ‘कैरियर का सब से बढ़िया समय आप का कौन था?’ हेमलता बोलीं, कैरियर का सब से बढ़िया समय यही समय है। जिस से मैं अभी गुज़र रही हूँ। हर गीत एक चैलेंज की तरह है। परफॉर्मेंस में मज़ा आ रहा है। मैं चाहती हूँ कि इस में कुछ बदलाव आए। इस बदलाव का बहाना मैं बनूं। तो बहुत अच्छा, बहुत स्वीट दौर आएगा। ‘आप लोकभाषाओं की गायकी में जो टच देती हैं वह कैसे बन पड़ता है?’ हेमलता बोलीं, अलग-अलग लोकल डिक्शन पकड़ना मेरी हॉवी रही है। 38 भाषाओं में मैं गा रही हूँ। 14 भाषाओं के डिक्शन पर रिसर्च किया है। पर सब से बड़ा कॉम्पलीमेंट मुझे इटली में एक ओपेरा सिंगिग ग्रुप के साथ गाए गीत में मिला। जैसे आप पूछ रहे हैं वैसे ही वहां के लोगों ने भी पूछा कि इतना लोकल डिक्शन कैसे आ गया? वैसे मैं अफ्रीकन, जूलो, मुल्तानी, सरायकी, पोरचुकी भाषाओं में भी गा रही हूँ। पर मुझे सब से प्रिय है हिंदी गीत गाना। महादेवी और मैथिली शरण गुप्त मेरे प्रिय कवि हैं।

‘पर ऐसे गीत कहां गाए हैं आप ने?’ पूछने पर वह बोलीं, ‘गाए तो हैं पर वह मिले कम हैं। दिक्कत यह है कि हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री में सिंगर का हस्तक्षेप नहीं होता। मुझे कई बार बीच गाने में छोड़ कर भागना पड़ता है। जैसे कि सावन कुमार की ‘खलनायिका’ में चोली वाला गीत छोड़ कर भागना पड़ा। ‘सात सहेलियां खड़ी-खड़ी भी छोड़ना पड़ा था’। ‘इन दिनों किस बैरियर से गुजर रहीं हैं?’ हेमलता बोलीं, ‘बैरियर न पहले कमज़ोर था न अब है। पर पहले मंगेशकर बैरियर के बावजूद, पोलिटिक्स के बावजूद संगीत तो था। पर आज के बैरियर में कला की बात ही नहीं। न आवाज़ की न डिक्शन की। आज जिन चीजों की ज़रूरत है, वह न मुझ में है और न मैं हो सकती हूँ। आई एम टू लेट। दूसरा जन्म लेना पड़ेगा। गानों में अब पंचिंग सिस्टम हो गया है। डबिंग सिस्टम हो गया है। अब जब सिंगर को ही गाना याद नहीं रहता तो पब्लिक को क्या याद रहेगा?

‘इन दिनों क्या कर रहीं है आप?' वह बोलीं, रिकॉर्डिंग अपने ही गानों की। फ़िल्मों में जो गा रही हूँ, वो तो गा ही रही हूँ। मेरे पति दिलीप साहब ने एक म्युजिक कंपनी लांच कर ली है। इन्हों ने मेरा अलबम रिकार्ड किया है गुरूवाणी, गुरुग्रंथ साहब से। पाकिस्तानी गायक अताउल्ला खान के साथ एक म्युजिक ट्रैक अभी लंडन में डब किया है। पर सब से मज़े की बात यह है कि 16 साल से जिस अताउल्ला खान को हिंदुस्तान के लोग सुन रहे हैं वह डुप्लिकेट फेक आवाज़ है। जो टी-सीरिज द्वारा जारी किया गया है। पर असली अताउल्ला खान बहुत जल्दी आप के सामने होंगे। हमारे साथ। अलबम का टाइटिल रखा है ‘सरहदें’। सरहदें में 6 डुएट्स हैं और एक-एक सोलो। पर अताउल्ला खान के फर्जी होने को भी हम इस के साथ ही पर्दाफाश करेंगे। जो अताउल्ला खान दरअसल टी सीरिज पर गा रहें हैं वह दरअसल गुड़गांव के एक शर्मा जी हैं।’


लेखक दयानंद पांडेय लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और उपन्‍यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और dayanand.pandey@yahoo.com के जरिए किया जा सकता है. इनका यह लेख इनके ब्‍लॉग सरोकारनामा पर भी प्रकाशित हो चुका है.