(गुलजार ने सिनेमाई गीतों को नए प्रतिमान दिए हैं। इनके लिखे पहले गीत के पूरे होने की कहानी रोचक है। आइये, उसे जानें गुलजार की ही कलम से)
बंदिनी फिल्म में बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही
कल्याणी की सही हालत समझ में आती है। सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई :
ललल ला ललल लला ला
'मोरा गोरा रंग लई ले' इस गीत का जन्म वहां से
शुरू हुआ जब बिमल-दा और सचिन-दा ने सिचुएशन समझाई। कल्याणी (नूतन) जो मन-ही-मन
विकास (अशोक कुमार) को चाहने लगी है, एक रात चूल्हा-चौका समेटकर
गुनगनाती हुई बाहर निकल आई।
" ऐसा करेक्टर घर से बाहर
जाकर नहीं गा सकता", विमल-दा
ने वहीं रोक दिया। "बाहर नहीं जाएगी तो बाप के सामने कैसे गाएगी?"
सचिन-दा
ने पूछा।
"बाप से हमेशा वैष्णव कविता सुना
करती है, सुना
क्यों नहीं सकती?" बिमल-दा ने दलील दी।
"यह कविता-पाठ नहीं है, दादा, गाना है।"
"तो कविता लिखो। वह कविता
गाएगी"।
"गाना घर में घुट जाएगा।"
"तो आंगन में ले जाओ। लेकिन बाहर
नहीं जाएगी।"
"बाहर नहीं जाएगी तो हम गाना भी
नहीं बनाएगा।",सचिन-दा
ने भी चेतावनी दे दी।
कुछ इस तरह से सिचुएशन समझाई गई मुझे। मैंने पूरी कहानी
सुनी, देबू
से। देबू और सरन दोनों दादा के असिस्टेंट थे। सरन से वे वैष्णव कविताएं सुनीं जो
कल्याणी बाप से सुना करती थी। बिमल-दा ने समझाया कि रात का वक्त़ है, बाहर जाते डरती है, चांदनी रात में कोई देख
न ले। आंगन से आगे नहीं जा पाती।
सचिन-दा ने घर बुलाया और समझाया: चांदनी रात में डरती है, कोई देख न ले। बाहर तो
चली आई, लेकिन
मुड़-मुड़के आंगन की तरफ देखती है।
दरअसल, बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को
मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है। सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे
धुन सुनाई : ललल ला ललल लला ला
गीत के पहले-पहले बोल यही थे। पंचम (आर.डी.बर्मन) ने
थोड़ा-सा संशोधन किया :
ददद दा ददा ददा दा
सचिन-दा ने फिर गुनगुनाकर ठीक किया :
ललल ला ददा दा लला ला
ललल ला ददा दा लला ला
गीत की पहली सूरत समझ में आई। कुछ ललल ला और कुछ ददद दा-
मैं सुर-ताल से बहरा भौंचक्का-सा दोनों को देखता रहा। जी चाहा, मैं अपने बोल दे दूं:
तता ता ततता तता ता
मैं सुर-ताल से बहरा भौंचक्का-सा दोनों को देखता रहा। जी चाहा, मैं अपने बोल दे दूं:
तता ता ततता तता ता
सचिन-दा कुछ देर हार्मोनियम पर धुन बजाते रहे और
आहिस्ता-आहिस्ता मैंने कुछ गुनगुनाने की कोशिश की। टूटे-टूटे से शब्द आने लगे :
दो-चार... दो-चार... दुई-चार पग पे अंगन-
दुई-चार पग... बैरी कंगना छनक ना-
दुई-चार पग... बैरी कंगना छनक ना-
गलत-सलत सतरों के कुछ बोल बन गए:
बैरी कंगना छनक ना
मोहे कोसों दूर लागे
दुई-चार पग पे अंगना-
बैरी कंगना छनक ना
मोहे कोसों दूर लागे
दुई-चार पग पे अंगना-
सचिन-दा ने अपनी धुन पर गाकर परखे, और यूं धुन की बहर हाथ
आ गई।
चला आया। गुनगुनाता रहा। कल्याणी के मूड को सोचता रहा।
कल्याणी के ख्याल क्या होंगे ? कैसा महसूस किया होगा ? हां, एक बात ज़िक्र के काबिल
है। एक ख़्याल आया, चांद
से मिन्नत करके कहेगी:
मैं पिया को देख आऊं
जरा मुंह फिराई ले चांद
जरा मुंह फिराई ले चांद
फ़ौरन ख़्याल आया, शैलेन्द्र यही ख़्याल बहुत अच्छी
तरह एक गीत में कह चुके हैं :
दम-भर को जो मुंह फेरे-ओ चंदा-
मैं उनसे प्यार कर लूंगी
बातें हजार कर लूंगी-
दम-भर को जो मुंह फेरे-ओ चंदा-
मैं उनसे प्यार कर लूंगी
बातें हजार कर लूंगी-
कल्याणी अभी तक चांद को देख रही थी। चांद बार-बार बदली
हटाकर झांक रहा था, मुस्करा
रहा था।
जैसे कह रहा हो, कहं जा रही हो ? कैसे जाओगी ? मैं रोशनी कर दूंगा। सब
देख लेंगे। कल्याणी चिढ़ गई। चिढ़के गाली दे दी :
तोहे राहू लागे बैरी
मुसकाए जी जलाई के
तोहे राहू लागे बैरी
मुसकाए जी जलाई के
चिढ़के गुस्से में वहीं बैठ गई। सोचा, वापस लौट जाऊं। लेकिन
मोह, बांह
से पकड़कर खींच रहा था। और लाज, पांव पकड़कर रोक रही थी। कुछ समझ
में नहीं आया, क्या
करे? किधर
जाए? अपने
ही आपसे पूछने लगी:
कहां से चला है मनवा
मोहे बावरी बनाई के
मोहे बावरी बनाई के
गुमसुम कल्याणी बैठी रही। बैठी
रही, सोचती
रही, काश, आज रोशनी न होती। इतनी
चांदनी न होती। या मैं ही इतनी गोरी न होती कि चांदनी में छलक-छलक जाती। अगर
सांवली होती तो कैसे रात में ढंकी-छुपी अपने पिया के पास चली जाती। लौट आई बेचारी
कल्याणी, वापस
घर लौट आई। यही गुनगुनाते :
मोरा गोरा रंग लई ले
मोहे श्याम रंग दई दे।।
मोरा गोरा रंग लई ले
मोहे श्याम रंग दई दे।।
एक बार पूरे गाने का आनंद लीजिये