Saturday, April 6, 2013

सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता

अमीर मीनाई की एक मशहूर ग़ज़ल है "हालात मैक़दे के करवट बदल रहे हैं", जिसे समय समय पर कई ग़ज़ल गायकों नें गाया है। उनकी एक और मशहूर ग़ज़ल रही है "सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता", जिसे भी ख़ूब मकबूलियत मिली और आज भी ग़ज़लों की महफ़िलों की शान है। इस ग़ज़ल के तमाम शेर ये रहे - 

सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता-आहिस्ता

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा
हया यकलख़्त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता

शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तों अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता-आहिस्ता

सवाल-ए-वस्ल पर उनको अदू का ख़ौफ़ है इतना
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता

हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क़ है इतना
इधर तो जल्दी जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता

वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूँ उन से
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता
 

१९७६ में नवोदित ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह नें 'दि अनफ़ोर्गेटेबल्स' ऐल्बम में इस ग़ज़ल को गा कर बहुत नाम कमाया था। यहाँ तक कि उनकी आवाज़ में यह ग़ज़ल लता मंगेशकर और आशा भोसले, दोनों की सबसे पसन्दीदा ग़ज़ल रही है। फ़िल्मों की बात करें तो १९८२ की प्रसन कपूर निर्मित व एच. एस. रवैल निर्देशित मुस्लिम पार्श्व पर बनी फ़िल्म 'दीदार-ए-यार' में इस ग़ज़ल को लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल नें बहुत ही ख़ूबसूरत फ़िल्मी जामा पहनाया और किशोर कुमार व लता मंगेशकर की युगल आवाज़ें पाकर जैसे ग़ज़ल को चार चाँद लग गए। जगजीत सिंह और 'दीदार-ए-यार', दोनों संस्करणों में एक आध शेर ग़ायब हैं। जगजीत सिंह के संस्करण में चौथा और पाँचवा शेर ग़ायब हैं, जबकि 'दीदार-ए-यार' वाले संस्करण में पाँचवा शेर नहीं है, और छठे शेर में 'अमीर' की जगह "मेरा" का प्रयोग किया गया है। 

इस "आहिस्ता-आहिस्ता" का कई फ़िल्मी शायरों और गीतकारों नें समय-समय पर फ़ायदा उठाया है। संगीतकार अनु मलिक की पहली कामयाब फ़िल्म 'पूनम' में मोहम्मद रफ़ी और चन्द्राणी मुखर्जी से एक ग़ज़ल गवाया था जिसे उनके मामा हसरत जयपुरी साहब नें लिखा था। अमीर मीनाई की इस ग़ज़ल से "आहिस्ता-आहिस्ता" को लेकर हसरत साहब नें लिखा 

"मोहब्बत रंग लायेगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता,
के जैसे रंग लाती है शराब आहिस्ता आहिस्ता"
 

ग़ज़ल के बाक़ी शेर थे -- 

अभी तो तुम झिझकते हो अभी तो तुम सिमटते हो
के जाते जाते जायेगा हिजाब आहिस्ता आहिस्ता

हिजाब अपनो से होता है नहीं होता है ग़ैरों से
कोई भी बात बनती है जनाब आहिस्ता आहिस्ता

अभी कमसीन हो क्या जानो मोहब्बत किसको कहते हैं
बहारें तुम पे लायेंगी शबाब आहिस्ता आहिस्ता

बहारें आ चुकी हम पर ज़रूरत बाग़बाँ की है
तुम्हारे प्यार का दूंगी जवाब आहिस्ता आहिस्ता
 

हसरत जयपुरी के लिखे इन शेरों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे अमीर मीनाई की ग़ज़ल का ही एक एक्स्टेन्शन है। हसरत साहब पुराने शायरों की लाइन उठाने में माहिर थे; मसलन उस्ताद मोमिन ख़ाँ की एक मशहूर ग़ज़ल के ये शेर पढ़िये -- 

असर उसको ज़रा नहीं होता
रंज राह्तफ़ज़ा नहीं होता

तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता

नारसाई से दम रुके तो रुके
मैं किसी से ख़फ़ा नहीं होता

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
 

इस आख़िरी शेर को लेकर हसरत साहब नें लिख डाला "ओ मेरे शाहेख़ुबाँ, ओ मेरी जाने जनाना, तुम मेरे पास होती हो, कोई दूसरा नहीं होता"। वैसे दोस्तों, हसरत साहब से पहले १९६६ की फ़िल्म 'लबेला' में गीतकार आनन्द बक्शी हू-ब-हू ऐसी ही एक ग़ज़ल लिख चुके थे "मोहब्बत रंग लाती है जनाब आहिस्ता आहिस्ता, असर करती है के जैसे शराब आहिस्ता आहिस्ता"। 'पूनम' में हसरत नें "लाती है" को "लायेगी" कर दिया। बक्शी साहब की लिखी फ़िल्म 'लबेला' की पूरी ग़ज़ल यह रही - 

मोहब्बत रंग लाती है जनाब आहिस्ता आहिस्ता
असर करती है के जैसे शराब आहिस्ता आहिस्ता

कोई सुन ले तो हो जाये ज़माने भर में रुसवाई
ये बातें कीजिए हमसे जनाब आहिस्ता आहिस्ता

नज़र मिलते ही साक़ी से बहक जाते थे हम लेकिन
हम ही पीने लगे हैं बेहिसाब आहिस्ता आहिस्ता

सितमगर नाम है जिनका भला वो महरबाँ क्यों हो
उठाने दो हमें रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
 

'दीदार-ए-यार' १९८२ की फ़िल्म थी जिसमें अमीर मीनाई की इस ग़ज़ल का उसके मूल रूप में ईस्तेमाल किया गया था। पर इसके एक साल पहले, १९८१ में निर्माता सिब्ते हसन रिज़वी और निर्देशक ईस्माइल श्रोफ़ नें एक फ़िल्म बनाई थी 'आहिस्ता-आहिस्ता'। ख़य्याम के संगीत में फ़िल्म के नग़में लिखे निदा फ़ाज़ली नें। क्या फ़िल्म का शीर्षक अमीर मीनाई के उस ग़ज़ल से प्रेरित था यह तो अब बताना मुश्किल है, पर फ़िल्म के शीर्षक गीत के लिए उस ग़ज़ल से बेहतर शायद ही कोई और गीत हो! लेकिन फ़िल्म के निर्माता नें ऐसा नहीं किया, बल्कि फ़ाज़ली साहब से उसी अंदाज़ में नए बोल लिखवाए, और ग़ज़ल के बदले लिखवाया गीत। 

नजर से फूल चुनती है नजर, आहिस्ता आहिस्ता
मोहब्बत रंग लाती है मगर, आहिस्ता आहिस्ता

दूवायें दे रहे हैं पेड़, मौसम जोगिया सा है,
तुम्हारा साथ है जब से, हर एक मंज़र नया सा है,
हसीं लगने लगे हर रहगुजर, आहिस्ता आहिस्ता

बहुत अच्छे हो तुम, फिर भी हमें तुम से हया क्यों है,
तुम ही बोलो हमारे दरमियाँ ये फासला क्यों है,
मज़ा जब है के तय हो ये सफर, आहिस्ता आहिस्ता

हमेशा से अकेलेपन में कोई मुस्कुराता है,
ये रिश्ता प्यार का है, आसमां से बनके आता हैं,
मगर होती है दिल को ये खबर, आहिस्ता आहिस्ता
 

अब ज़रा और पुराने समय में चलते हैं। १९३६ में एक फ़िल्म आई थी 'बेरोज़गार' जिसमें संगीतकार थे राम टी. हीरा और गीतकार थे अब्दुल बारी। इस फ़िल्म में एक गीत था "निगाहें हो रही हैं बेहिजाब आहिस्ता आहिस्ता"। गीत के पूरे बोल तो उपलब्ध नहीं है, पर इस एक पंक्ति को पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे कुछ-कुछ इसी अंदाज़ का गीत होगा या ग़ज़ल होगी। 'मधुकर पिक्चर्स' के बैनर तले बनी १९४९ की मशहूर फ़िल्म 'बाज़ार' के लिए बनने वाले कुल १६ गीतों में एक क़व्वाली थी - 

"नज़र से मिल ही जयेगी नज़र आहिस्ता आहिस्ता,
मेरी आहों में आयेगा असर आहिस्ता आहिस्ता"
 

पर इस क़व्वाली को बाद में फ़िल्म से हटा लिया गया था। १९५१ की फ़िल्म 'ग़ज़ब' में इसी क़व्वाली को शामिल किया गया जिसे लता मंगेशकर, ज़ोहराबाई अम्बालेवाली और कल्याणी नें गाया था। फ़िल्म के संगीतकार थे निसार बाज़मी व शौकत दहल्वी (नाशाद) तथा गीतकार थे ए. करीम। १९७१ की फ़िल्म 'बलिदान' में वर्मा मलिक नें एक गीत लिखा था जो था तो एक आम गीत, पर मुखड़े के लिए फिर से उसी "आहिस्ता आहिस्ता" का सहारा लिया गया था। पहला मुखड़ा और हर अंतरे के बाद में आने वाले मुखड़े को मिला कर "आहिस्ता-आहिस्ता" वाली पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -- 

चले आओ दिल में बचा के नज़र आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
ज़माने को होने न पाये ख़बर आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
मोहब्बत का होने लगा है असर आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
खींची जा रही हूँ मैं जाने किधर आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
शुरु हो रहा है ये पहला सफ़र आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता
 

इस तरह से अमीर मीनाई की मूल ग़ज़ल "सरकती जाये है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता" के कई संस्करण और उससे प्रेरित कई गीत और ग़ज़लें बनीं, पर सभी गीतों और ग़ज़लों को सुन कर और पढ़ कर इस नतीजे पर पहुँचा जा सकता है कि उनकी उस मूल रचना का स्तर ही कुछ और है, उसकी बात ही कुछ और है। १९-वीं सदी में लिखे जाने के बावजूद उसका जादू आज भी बरकरार है, और आज भी जब ग़ज़लों की किसी महफ़िल में इसे गाया जाता है तो लोग "वाह-वाह" कर उठते हैं। 

फ़िल्म 'दीदार-ए-यार' से "सरकती जाये है..." सुनने के लिए नीचे प्लेयर में क्लिक करें... 

2 comments:

RM said...

Hello Sudhir ji - Quite an interesting and fresh blog. Some of the snippets are unknown to me and the flow of thoughts is engaging. Ahista Ahista has been worded from my thoughts of childhood days when I used to wonder the same 'misra' used in different situations. But adding Anand Bakshi's lyrics and 1936 movie reference has take it to a new level. I will stay connected for sure. Please keep writing.

Rahul

Unknown said...

सुंदर संकलन...❤️