Friday, April 6, 2012

कम बजट की फिल्‍म कभी कभी महाकाव्‍य भी हो जाती है!

फिल्मकार तिग्मांशु धूलिया एवं यूटीवी ने ‘पान सिंह तोमर’ को एक महान फिल्म के रूप में रचा है। इस फिल्म को देखकर यह आभास होता है मानो ये छोटी, कम बजट की फिल्म एक दोहा नहीं, वरन महाकाव्य है। एक न्यायप्रिय मनुष्य के अन्याय के साथ युद्ध की कथा है।
फिल्म देखकर आपको अपने मनुष्य और भारतीय होने के गर्व के साथ ही भारतीय समाज एवं सरकार के अन्याय पर दुख के साथ शर्म भी आती है कि हम अपने प्रतिभाशाली युवा के सपनों और जीवन की रक्षा नहीं कर पाते। पान सिंह तोमर मुरैना के गरीब कृषक परिवार का युवा है, जो भरपेट भोजन के लिए फौज में भर्ती होता है और उसके दौडऩे की प्रतिभा को देखकर उसे एक धावक बनना होता है और घोड़ों की शक्ति को आंकने वाली स्पर्धा के समान मनुष्य के लिए रची गयी स्पर्धा को वह घोड़ों की गति और शक्ति के साथ निभाता है।
अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले परिवार की जमीन दादागिरी करके छीन ली जाती है और जब पुलिस तथा प्रशासन से उसे कोई सहायता नहीं मिलती, तो वह बागी बनकर अन्याय का प्रतिकार करने पर विवश हो जाता है। दरअसल पान सिंह तोमर डाकू क्यों बना, का जवाब यह होना चाहिए कि हर एक न्यायप्रिय व्यक्ति बागी क्यों नहीं बनता। यह फिल्म आपको हिलाकर रख देती है। पान सिंह तोमर के साथ आप हंसते हैं, ठिठोली करते हैं, आंसू बहाते हैं और आपको खेद होता है कि आप उसके साथ अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए मर क्यों नहीं गये। दिल के आरामपसंद अय्याश कोने से आवाज आती है कि मरे नहीं, क्योंकि हम पान सिंह तोमर नहीं हैं, हम चंबल में नहीं जन्मे, हमारे पास अन्याय के विरोध का माद्दा नहीं है।
आज के मस्ती मंत्र का जाप करने वाले युवा भी इस फिल्म को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाएंगे, क्योंकि फिल्मकार ने इतनी कमाल की रोचक फिल्म रची है कि आप एक क्षण के लिए भी परदे से निगाह नहीं हटा सकते। संवाद इतने हृदयस्पर्शी हैं कि आप पात्रों की भाषा बोलने लगते हैं। सिनेमाघर से बाहर निकल कर घर लौटते समय फिल्म के पात्र जुलूस की शक्ल में आपके साथ आ जाते हैं। इस फिल्म के समग्र प्रभाव से मुक्ति संभव नहीं है। फिल्मकार ने मानवीय साहस की कथा को एक थ्रिलर की गति और प्रवाह दिया है। यह फिल्म चंबल गये बिना चंबल में तैरने का-सा अहसास जगाती है।
पान सिंह तोमर के पात्र को इरफान खान ने इतने जीवंत ढंग से प्रस्तुत किया है कि हर अभिनय सिखाने वाले संस्थान में इसे पाठ्यक्रम की तरह पढ़ाया जाना चाहिए। आज के वे तमाम लोग, जो अभिनय के क्षेत्र में जाना चाहते हैं, उन्हें यह फिल्म बार-बार देखनी चाहिए। इरफान खान ने पान सिंह तोमर के चरित्र को अपनी आत्मा में उतार लिया है और उनका चलना-फिरना, उठना-बैठना हर भाव-भंगिमा पान सिंह तोमर की है।
इस फिल्म में इरफान खान का अभिनय उसी तरह यादगार रहेगा, जिस तरह दिलीप कुमार का ‘गंगा जमना’ में किया गया बेमिसाल अभिनय। अभिनेत्री माही गिल को इस फिल्म में देखकर यकीन करना मुश्किल है कि यह पंजाब की कुड़ी है। वह चंबल की बेटी ही लगती है। फिल्म के अन्य सभी कलाकार एक हीरे के हार में जड़े नगीने लगते हैं। यूटीवी ने सिताराविहीन होने के बावजूद बड़े मनोयोग से फिल्म रचने में फिल्मकार का साथ दिया है।
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(जयप्रकाश चौकसे। मशहूर फिल्‍म समीक्षक। इंदौर में रहते हैं। दैनिक भास्‍कर के लिए सिनेमा पर एक दैनिक स्‍तंभ लिखते हैं। राजकपूर की सृजन प्रक्रिया पर किताब लिखी। उनसे jpchowksey@yahoo.in पर संपर्क करें।)

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