Sunday, April 8, 2012

स्वप्न झरे फूल से-नई उमर की नई फसल ( १९६५)

इस गीत को epic-song कहते हैं कुछ संगीत प्रेमी। शायद सही भी है।
गीत क्या है पूरी कविता है और अच्छी खासी लम्बाई की। हिंदी फिल्मों
में गीतों के स्तर को ऊंचा उठाने में और कविता को पहचान दिलाने में
कुछ कवियों का उल्लेखनीय योगदान रहा है । ये हस्तियाँ हैं- पंडित
नरेन्द्र शर्मा, पंडित भरत व्यास, कवि नीरज, शैलेन्द्र। गीतकार बहुत से
हुए मगर कविता की आत्मा को फिल्मों में जिन्दा रखने का काम जो
इन्होने किया है वो सराहनीय है और हिंदी साहित्य प्रेमी इनके योगदान
को कभी भुला नहीं पाएंगे। कविता जब गाई जाये तो गीत बन जाती है।
व्याख्यायें अलग भी हो सकती हैं और आमंत्रित हैं टिप्पणियों के माध्यम
से।

फिल्म नयी उम्र की नयी फसल के लिए इस गीत का संगीत तैयार किया है
रोशन ने। गायक कलाकार हैं मोहम्मद रफ़ी।
गीत के बोल:

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये श्रृंगार सभी, बाग के बबूल से
और हम खड़े खड़े, बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे

आँख भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक़ उठे कि ज़िंदगी फ़िसल गई
पात पात झड़ गए कि शाख-शाख जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए, स्वप्न हो दफ़न गए
साथ के सभी दिये, धुआं पहन-पहन गए
और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके
उम्र की चढ़ाव का उतार देखते रहे,

कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे

क्या शबाब था कि फूल फूल प्यार कर उठा
क्या कमाल था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमान उधर उठा
थामकर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
कि जो मिला नज़र उठा
पर तभी यहाँ मगर, ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली कली कि घुट गई गली गली
और हम लुटे-लुटे, वक़्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे,

कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे

हाथ थे मिले के ज़ुल्फ़ चाँद की सवार दूँ
होंठ थे खुले के हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया के हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ के स्वर्ग, भूमि पर उतार दूँ
भूमि पर उतार दूँ
हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर
वो उठी लहर के ढह गये किले बिखर बिखर
और हम डरे डरे, नीर नैन में भरे
ओढ़ कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे,

कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे

माँग भर चली के एक जब नई नई किरण
ढोल से धुनक उठी ठुमक उठे चरण चरण
शोर मच गया के लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन नयन
बहक उठे नयन नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार तार हुई चुनरी
और हम अजान से, दूर के मकान से
पालकी लिये हुये कहार देखते रहे,

कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे

स्वपन झड़े फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये श्रृंगार सभी बाग के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे

1 comment:

Dr. Swaran J. said...

गीत को सुनना और गीत को पढ़ना दो अलग अलग प्रक्रियाऐं हैं.सुनते समय शब्द ध्वनि का रूप ले कर सीधे दिल में उतर जाते हैं. पढ़ते समय दिमाग़ व समझ के साथ मन आत्मा में प्रवेश करते हैं. आपका आशय दूसरा है. दिमाग़ व समझ के साथ जुड़ने का है. यह गीत भारत भूषण द्वारा 1962 में निर्मित फिल्म 'नई उम्र की नई फ़सल' का है. ज़िन्दगी की जद्दो जहद में लोगों को पता भी नहीं चलता कि कब और कहाँ सपने ताबीर बने से पहले ही इधर उधर बिखर जाते हैं.. आप ज़िन्दगी की दौड़ में केवल सफलता की खोज में रह गए. और सफलता के अर्थ आप के लिए केवल व्यवसायी सफलता ही बन कर रह गए. कई बार कुछ लोगों कि साथ ऐसा भी हुआ कि आपके सपनों की फसल का श्रेय कोई दूसरा ले गया. इस गीत को पढ़ना , दोबारा सुनना ऐसे ही भाव देता है कि. जो सरोकार (कंसर्न्स) उन दिनों में युवा पीढ़ी के साथ थे वे आज भी उतने ही जीवंत हैं.