Sunday, April 15, 2012

धुनों के संसार की विस्मयकारी यात्रा

 
पुस्तक का नाम - धुनों की यात्रा
लेखक - पंकज राग -(पंकज राग वरिष्ठ IAS अधिकारी हैं एवं वाल्मी के पूर्व संचालक हैं.)
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ - 750
 
पंकज राग के साथ ‘धुनों की यात्रा’ पर निकलना किसी भी व्यक्ति के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव बन सकता है। कुछ ऐसा ही जैसे शाहजहां खुद ताजमहल की सुंदरता दिखाने आपके साथ हों, रेशे-रेशे से वाकिफ, जिसने संगमरमर की पंखुड़ियों को सिर्फ देखा नहीं, जिया है। जो भी आप जानना चाहते हैं और जो भी आपको जानना चाहिए, सारी जानकारियां पूरी आत्मीयता से, विश्वसनीयता से और विस्तार के साथ देने को आतुर। शाहजहां और ताजमहल से इस पुस्तक की तुलना इसलिए भी प्रासंगिक है कि हमें अपने हर सफर के पहले लगता है, भला ताजमहल में क्या देखना, देखा तो है। लेकिन देखने के बाद लगता है कितना कुछ शेष था देखने को। यह अधूरापन कायम ही रहता है क्यों कि शाहजहां हमारे साथ नहीं हो सकते। सुखद है कि ‘धुनों की यात्रा’ में पंकज राग हमारे साथ ही हैं।
1931 से 2005 तक के संगीतकारों पर केन्द्रित पंकज राग की पुस्तक ‘धुनों की यात्रा’ वास्तव में एक ऐसी दुनियां में प्रवेश का अनुभव देती है, जिसके बारे में हममें से अधिकांश आश्वस्त हैं कि उसे या तो सबकुछ मालूम है या फिर मालूम करने की जरूरत भी नहीं। लेकिन इस जानी पहचानी दुनियां की बातें जैसे-जैसे पंकज राग पलटने लगते हैं हमारी जिज्ञासा विस्मय में बदलने लगती है। बड़े आकार के लगभग 750 पृष्ठों की इस भरी पूरी पुस्तक से गुजरते हुए शायद ही कहीं पर यह अहसास होता है कि इसे हम क्यों जाने, बल्कि पृष्ठ दर पृष्ठ यही अहसास बना रहता है कि हम इसे अभी तक क्यों नहीं जान पाए।
पांचवें दशक के पूर्व को आरंभिक दौर मानते हुए पंकज राग भी हिन्दी सिनेमा के इतिहास की इस जानकारी को पुख्ता करते हैं कि सिनेमा और संगीत का संयोग मूक फिल्मों के दौर में भी था लेकिन तकनीकी रूप से सिनेमा संगीत के बिना ध्वनि के अवतरण के बाद ही मानी जा सकती है। पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ के संगीतकार फिरोज शाह मिस्त्री को पहला संगीतकार मानते हुए पंकज राग लिखते है, ‘पहला हिन्दुस्तानी गाना इसी फिल्म में था,. जिसे गाया था फिल्म के अभिनेता डब्ल्यु एम खान ने। एक फकीर के रोल में डब्ल्यू एम खान ने गाया, ‘दे दे खुदा के नाम पे प्यारे, ताकत है गर देने की, कुछ चाहे अगर मांग ले मुझसे, हिम्मत हो गर लेने की। वे आगे ये भी जानकारी देते हैं, मात्र एक तबले और एक हारमोनियम के साथ सृजित इस गीत का रेकार्ड नहीं बना था। पंकज राग की इस यात्रा की यही विशेषता है, वे गाइड की तरह झलकियां नहीं दिखाते, इतिहासकार की तरह विषय में प्रवेश का अवसर देते हैं।
‘‘मैंने प्रयास किया है कि न केवल संगीतकारों की जीवनी के विवरण दिए जाएं और न सिर्फ उनकी फिल्मी संगीत सभा को ही रेखांकित किया जाए, बल्कि उनकी संगीत प्रवृति की विश्लेषणात्मक विवेचना भी हो। रचनाओं में शास्त्रीय रागों और तालों का असर, लोकरंग का प्रभाव या अन्य बारीकियां तथा गीतों की विशिष्टताओं का भी वर्णन करने का प्रयास मैंने किया है।’’ इन संगीतकारों के संगीत की विशेषताओं को बदलते सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ के साथ देखने की भी कोशिश की गर्इ है। भूमिका में किए अपने निवेदन का निर्वाह करते पूरी फस्तक में पंकज राग देखे जा सकते हैं। आश्चर्य नहीं कि शंकर, एहसान, लाय की तिकड़ी को वे भूमंडलीकरण और नई सदी की बदली आर्थिक-सामाजिक प्रवृतियों के प्रतिनिधि के रूप में रेखांकित करते हैं। आज के दौर के सबसे प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में स्वीकार करते हुए पंकज राग लिखते हैं, ‘एक ओर आज की एन. आर. आइ. संस्कृति की इच्छाओं और मनोभावों के अनुकूल उपयुक्त वस्तुनिष्ठ संगीत दिया है तो साथ ही अंतर्राष्ट्रीय प्रवृतियों को भारतीय संदर्भ में स्थित करने के उनके प्रयास ने आधुनिक भौतिकवादी आकांक्षाओं को आपाधापी और व्यक्तित्व से लेकर सामाजिकता के बाजारीकरण के बीच मूल्यों और भावनाओं की क्षणभंगुरता से उभरे दर्द और उदासी को भी कुछ जमीन अवश्य दी है। ‘कल हो न हो’ जैसी चर्चित फिल्म ही नहीं पंकज की विस्तारित दृष्टि से अभिष्ट संगीतकार की शायद ही कोर्इ अल्पचर्चित कृति भी बच पाती है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास दशकों के विभाजन को बहुत मान्यता नहीं देती लेकिन यह भी सच है कि जब प्रवृतियां बहुत स्पष्ट विभाजित नहीं हो तो अध्ययन का सबसे बेहतर तरीका दशकों को ही आधार बनाना होता है। पंकज राग भी दशकों के विभाजन पर यकीन करते हैं। हालांकि भूमिका में पंकज राग ने स्वयं ही इस विभाजन की दिक्कतों का भी उल्लेख करते हुए कहते हैं, कुछ संगीतकार को तो पहचान मिलने में ही दो दशक लग गए, तो कुछ की सक्रियता किसी खास दशक के आर-पार रही। पंकज राग पहचान को आधार बनाकर बढ़ते हैं, आर. डी. बर्मन की चर्चा करते हुए वे स्पष्ट कहते हैं उनकी आधुनिक शैली ने अपनी छाप सातवें दशक में ही छोड़ दी थी, पर उसका व्यापक प्रभाव अगले दशक में होने के कारण उनकी चर्चा आठवें दशक की प्रवृतियों वाले आलेख के बाद की गई है।
पंकज राग की ‘धुनों की यात्रा’ में पांचवे से लेकर नवें दशक की प्रवृतियों को विश्लेषित किरते अलग-अलग आलेख हैं। तदुपरांत प्रत्येक दशक के साथ उस दौर के चुने हुए संगीतकारों पर विस्तार से चर्चा की गर्इ। लेकिन इस ‘चुने हुए’ की संख्या का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छठे दशक के अंतर्गत 39 संगीतकारों पर आलेख हैं, जबकि बड़े-बड़े संगीत के जानकार के लिए छठे दशक में चित्रगुप्त, वसंत देसाई, सचिन देव वर्मन, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, ओ. पी. नैयर, सलिल चौधरी, रवि और रौशन के नामों से आगे बढ़ना कठिन हो जाता है। विषय के प्रति पंकज के समर्पण को इसी से समझा जा सकता है कि 39 संगीतकारों पर लिखने के बावजूद वे रूकते नहीं हैं, उस दशक के अन्य छूटे हुए संगीतकारों की चर्चा सत्रह पृष्ठ के एक अलग आलेख में करते हैं, जिसमें अली अकबर खां जैसे शास्त्रीय संगीत की विभूति की भी चर्चा है, जिन्हें चेतन आनंद ने अपनी फिल्म ‘आंधियां’ में संगीत देने के लिए तैयार किया था, और सुधा मल्होत्रा की भी, जो मूलत: गायिका थी, लेकिन ‘दीदी’ के निर्माण के समय संगीतकार एन. दत्ता के बीमार पड़ जाने के कारण साहिर के एक गीत की धुन स्वयं बनायी थी। इसी आलेख में संगीतकार के रूप में मन्ना डे और मुकेश के योगदान के बारे में भी जानना दिलचस्प ही नहीं होता, लेखक के पूर्णता की हद तक पहुंचने की जिद भी प्रदर्शित करता है।
अपने शोध के प्रति पूरी गंभीरता रखते हुए भी पंकज राग ‘धुनों की यात्रा’ को महज एक शोध ग्रंथ नहीं बनने देते, यह उस वृहत ग्रंथ की सबसे बड़ी सफलता है। वास्तव में वे जब किसी संगीतकार की चर्चा करते हैं तो वहां शोधकर्त्ता की निरपेक्षता नहीं बल्कि मित्र की आत्मीयता झलकती है, रौशन को अंतर्मुखी और शान्त व्यक्तित्व का मालिक बताते हुए वे लिखते हैं, ‘‘दम्भ उनमें बिल्कुल भी नहीं था। किसी भी महफिल में हारमोनियम उठाकर किसी भी गायक का साथ दे देना उनके लिए आम बात थी। पर साथ ही निराशावादी विचार उनके अंदर हमेशा मंडराते रहते थे। आत्मविश्वास की कमी थी और यही कारण है कि यदि लोग उनके किसी धुन की तारीफ करते थे तो वे बेहद प्रसन्न हो जाते थे। रोशन में व्यावहारिकता भी नहीं थी - किसी के पास मांगने में वे कतराते थे।’’ किन्हीं के व्यक्तित्व को चित्रित करते हुए पंकज पाठकों के बीच से बिल्कुल हट जाना चाहते हैं और कोशिश करते हैं कि पाठक अभिष्ट व्यक्तित्व को गहनता से स्वयं रू-ब-रू हो।
‘व्यक्ति’ के साथ पाठकों की आत्मीयता स्थापित करने के की कोशिश में पंकज राग पाठकों को वह जानकारी भी देते हैं जिसे जानने की बहुत जरूरत तो नहीं होती, लेकिन उसे जानना दिलचस्प होता है। एस. डी. बर्मन की चर्चा करते हुए पंकज राग यह भी बताना जरूरी समझते हैं कि वे लता मंगेशकर की रिकार्डिंग से जब बहुत खुश हो जाते थे तो उसे पान पेश करते थे और यह भी कि जब लता ने ‘पग ठुमक चलत बलखाए’ की रिकार्डिंग दुबारा कराने से इन्कार कर दिया तो उन्होंने स्पष्ट कहलवाया, यदि लता को इस गीत की जरूरत नहीं तो उनको भी लता की जरूरत नहीं। पंकज आगे यह भी बताते हैं कि लता मंगेशकर और एस. डी. बर्मन के इस विवाद का फायदा आशा और गीता को मिला।
वास्तव में यही छोटी-छोटी बाते हैं जो पंकज राग की ‘धुनों की यात्रा’ को बोझिल होने से बचाती हैं। हालांकि उल्लेखनीय यह भी है कि इस तरह के क्षेपक हिन्दी फिल्म संगीत के इतिहास के सफर को कहीं भी दिक्भ्रमित नहीं करती। फस्तक की प्रस्तुति एक अलग चर्चा की मांग करती है। किंचित आश्चर्य होता है और पंकज राग के श्रम के प्रति सम्मान भी कि किस तरह उन्होंने ‘फ्रलाइंग प्रिंस’ और ‘डंका’ जैसे अचर्चित फिल्मों के पोस्टर और तलत महमूद अभिनीत फिल्मों के फोटोग्राफ जुटाए होंगे। ये तस्वीरें सिर्फ फिल्मों के दृश्य के लिए ही नहीं बल्कि उस काल की भाषा, लिपि, कला और छपार्इ की तकनीक की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। चाहे सरोज मूवीटोन का ‘महान सामाजिक बोलपट’ के रूप में ‘चन्द्रा’ या ‘मॉडर्न गर्ल’ का विज्ञापन हो या ‘दिल की प्यास’ का पम्फलेट पर कज्जन की तस्वीर हो या प्रभात स्टुडियो में लगे ‘माया मछिन्द्र’ के सेट की सभी अपने आप में एक मुकम्मल इतिहास बयान करती लगती हैं। 
‘धुनो की यात्रा’ संतोष देती है कि हिन्दी में साहित्येतर कलाविधाओं खासकर सिनेमा के प्रति गंभीर लेखकों के हिचक टूट रहे हैं। पंकज राग की यह कोशिश हिन्दी साहित्यकारों को यह अहसास कराने में सक्षम होती है कि कला की किसी बड़ी दुनियां से उन्होंने स्वयं को वंचित रखा है और अपने पाठकों को भी।

No comments: