Friday, April 20, 2012

चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो



संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ने फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ के गीत राग कल्याण से लेकर राग पहाड़ी में ढाले हैं। लेकिन फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ के गीतों में एक ऐसी पाकीज़गी है जो मुझे मजबूर करती है कि इन सबको ‘राग पाकीज़ा’ कहूं।

अपनी बात को थोड़ी और पुख़्तगी देने के लिए मैं यहां कमाल अमरोही साहब की मदद लूंगा। इस सिलसिले में जनाब फ़िरोज़ देहलवी से बातचीत के दौरान वे कहते हैं - ‘..आपने गीत ‘मौसम है आशिकाना..’ सुना है। आपने कभी ग़ौर किया है कि इस मुनाजि़र में संगीत ने क्या करिश्मा दिखाया है? जिस वक़्त साहिब जान (मीना कुमारी) ख़ैमे के नज़दीक यह गीत गा रही होती है, तमाम साज़ों की आवाज़ सिमट जाती है। जैसे ही साहिब जान वहां से हटकर खुले मैदान में आती है, आवाज़ मैदान की वुसत (विस्तार) के ऐतबार से फैल जाती है’।

फिल्म ‘पाकीज़ा’ के बनने की कहानी ख़ुद एक पूरी फ़िल्म की कहानी है। इस वक़्त तो नहीं पर मौक़ा लगा तो किसी और दिन ज़रूर इसकी बात करेंगे। फ़िलहाल तो मुख़्तसिर-सी ही बात बताऊंगा। ब्लैक एंड व्हाइट में इस फ़िल्म की पहली शुरुआत हुई थी जुलाई 1956 में। प्रसिद्ध गीत ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा..’ वग़ैरह का पिक्चराईज़ेशन भी हो गया था कि कमाल अमरोही का इरादा बदला। अब वे इस फ़िल्म को सिनेमास्कोप में बनाना चाहते थे क्योंकि 35 एमएम में सेट की भव्यता का अंदाज़ा नहीं लग रहा था।

दो साल की ख़ामोशी के बाद दूसरी बार मुहूर्त हुआ 18 जनवरी 1958 को। कमाल अमरोही इस फ़िल्म के ज़रिए अपनी बीवी मीना कुमारी के लिए एक ऐसी यादगार फ़िल्म बनाना चाहते थे जिसकी तुलना शाहजहां के ताजमहल से की जा सके। इसी धुन में वे फ़िल्म के मुहूर्त के बाद तीन साल तक फ़िल्म की बारीक से बारीक तफ़सील पर काम करते रहे ताकि उनके ताजमहल की चमक बाक़ी सब की चमक को फीका कर दे।

तीन साल बाद 1961 में जाकर फ़िल्म की बाक़ायदा शूटिंग का सिलसिला शुरू हुआ, लेकिन संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद तो 1956 से 1958 तक ही फ़िल्म के गीतों की रचना कर चुके थे। बाद में कुछ और नए गीत जोड़ने और गीत बदलने का काम भी 1961 के काफ़ी पहले पूरा हो चुका था।

ग़ुलाम मोहम्मद साहब के बेटे अज़ीज़ भाई के मुताबिक़ सबसे पहला गीत रिकार्ड हुआ था लता मंगेशकर की आवाज़ में - ‘मौसम है आशिक़ाना, ऐ दिल कहीं से उनको ऐसे में ढूंढ लाना’। दूसरा गीत था - ‘इन्हीं लोगों ने’ और तीसरा - ‘ठाड़े रहियो, ओ बांके यार’।

1961 से 1964 तक फ़िल्म की शूटिंग चलती रही। इसके बाद कमाल अमरोही और मीना कुमारी के वैवाहिक जीवन में ऐसे हालात आए कि मीना कुमारी घर छोड़कर अलग रहने लगीं। फ़िल्म की शूटिंग बंद हो गई और ऐसा लगने लगा कि अब यह फ़िल्म शायद ही कभी बन पाए।

अभिनेत्री नर्गिस और दीगर दोस्तों की कोशिशों से 1969 में जाकर दुबारा फ़िल्म की शूटिंग शुरू हुई और फ़रवरी 1972 में जाकर फ़िल्म रिलीज़ हो पाई। 31 मार्च को मीना कुमारी चल बसीं। इसके बाद तो फ़िल्म ने ऐसा ज़ोर पकड़ा कि बंबई में तो सिलवर जुबिली के बाद भी ‘हाउसफुल’ के बोर्ड लगे रहते थे।

फ़िल्म के संगीत ने तब ऐसी धूम मचाई कि लोग ‘पाकीज़ा’ देखने फिर-फिर सिनेमा घर की तरफ दौड़ जाते। लेकिन तब तक ग़ुलाम मोहम्मद अपने इस फ़न की दाद लिए बिना ही जा चुके थे।

ग़ुलाम मोहम्मद को 1956 के आसपास ही पहली बार हार्ट-अटैक हो चुका था और काम मिलना कम हो गया था। 1958 में उनकी एक फ़िल्म रिलीज़ हुई ‘मालिक’। इस फ़िल्म के निर्माता संगीतकार नौशाद ही थे जो एस यू सन्नी के साथ मिलकर फ़िल्में बनाते थे।

अगले साल सिर्फ़ एक फ़िल्म - सोहराब मोदी की ‘दो गुंडे’। उसके बाद जाकर आई 1961 में ‘शमा’। उसके बाद तो एकदम सन्नाटा हो गया। हिंदी फिल्मों में तो काम मिलना अचानक ही बंद हो गया।

प्रसिद्ध पत्रकार विनोद मेहता ने अपनी पुस्तक ‘मीना कुमारी’ में लिखा है - ‘ग़ुलाम मोहम्मद की मौत, एक अफ़सोसनाक और दिल दहलाने वाली मौत थी। साठ के दशक में सच्चे और खरे हिंदुस्तानी संगीत की गुंजाइश लगभग ख़त्म हो चुकी थी। ‘रॉक-एन-रोल’ और ‘याहू’ जैसे विदेशी नक़ल के सस्ते नमूने कामयाब हो चले थे।

‘ग़ुलाम मोहम्मद जैसे सच्चे संगीत साधक के लिए यह सब कुफ़्र था। ..ऐसे में ग़ुलाम मोहम्मद उधार लिए हुए एक टेप रिकॉर्डर पर ‘पाकीज़ा’ के अपने गीत भरकर निर्माताओं के चक्कर लगाते रहे। वो उन्हें बताते थे कि देखिए यह है उनका संगीत।

‘मगर अफ़सोस। निर्माताओं पर इसका कोई असर नहीं होता। उनकी नज़र में वह उनके काम का संगीत नहीं था। उन्हें तो बस कुछ नया ‘जैज़ी’ संगीत चाहिए था। हताश-निराश ग़ुलाम मोहम्मद टेप-रिकॉर्डर उठाकर लौट जाते।

‘1968 में वो बहुत बीमार थे। उनके पास न तो रोटी के लिए पैसे थे और न दवा के लिए।’

ग़ुलाम मोहम्मद ने इन्हीं हालात में भोजपुरी फ़िल्मों में संगीत देना शुरू किया था। 1961 के बाद से उन्होंने कोई 11 भोजपुरी फ़िल्मों में संगीत दिया। इनमें 1965 की फ़िल्म ‘सैयां से नेहा लगइबे’ भी शामिल है।

अज़ीज़ भाई कहते हैं - ‘भाई, यह सच्ची बात है कि उनके अपने लिए चाहे जितना मुश्किल वक़्त रहा हो, उन्होंने हम बच्चों को हमेशा शहज़ादों की तरह पाला’।
आखि़र 17 मार्च 1968 को ग़ुलाम मोहम्मद का यह दुनियावी सफ़र अंजाम तक पहुंच गया। उनकी सबसे कामयाब फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ इसके लगभग तीन साल बाद रिलीज़ हुई। चारों तरफ ़ग़ुलाम मोहम्मद के संगीत और उनके नाम की गूंज थी, लेकिन न थे तो बस ग़ुलाम मोहम्मद ही न थे।

उनकी मौत के पूरे एक साल बाद 16 मार्च 1969 को जब ‘पाकीज़ा’ की शूटिंग दुबारा शुरू हुई तो फ़िल्म का बैकग्राऊंड म्यूजि़क नौशाद साहब ने तैयार किया। इसी के साथ तीन गीत भी उन्होंने रिकॉर्ड किए, जो फिल्म में बैकग्राऊंड के साथ ही इस्तेमाल हुए हैं। ये गीत हैं - ‘नजरिया की मारी’ (राजकुमारी), ‘मोरा साजन सौतन घर जाए’(वाणी जयराम) और ‘कौन गली गयो श्याम’ (परवीना सुल्ताना)।

पाकीज़ा के संगीत की एक बात और। इस फ़िल्म के छह गीत जिन्हें ग़ुलाम मोहम्मद साहब ने रचा था - ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा’ (लता/मजरूह), ‘ठाड़े रहियो ओ बांके यार’ (लता/मजरूह), ‘यूं ही कोई मिल गया था, सरे राह चलते-चलते’ (लता/कैफ़ी आज़मी), ‘मौसम है आशिक़ाना’ (लता/कमाल अमरोही), ‘चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो’ (लता-रफी/कैफ़ भोपाली) और ‘आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे’(लता/कैफ़ भोपाली) - तो फ़िल्म में शामिल थे ही लेकिन इसके अलावा नौ गीत और हैं, जो फ़िल्म में शामिल नहीं थे। एचएमवी ने 1977 में इन सभी गीतों को एक लॉन्ग प्ले रिकॉर्ड, जिसे आम तौर पर एलपी रिकॉर्ड कहते हैं, की शक्ल में रिलीज़ किया था। इस रिकॉर्ड का नाम है ‘पाकीज़ा - रंग-बरंग’।

इस रिकॉर्ड के गीत इस तरह हैं : 1) ‘जाए तो कहां जाए, अब ये तेरा दीवाना’ (रफी-शमशाद-साथी), 2) ‘चलो दिलदार चलो’ (सिर्फ़ लता की आवाज़ में), 3) ‘प्यारे बाबुल तुम्हारी दुहाई, आज मैं हो रही हूं पराई’ (लता-साथी), 4) ‘कोठे से बड़ा लंबा, हमारा बन्ना’ (शमशाद बेगम), 5) ‘गिर गई रे मोरे माथे की बिंदिया’ (लता)। ये पांचों गीत कैफ़ भोपाली के हैं।

इसी तरह म
ज़रूह के दो गीत हैं - ‘ये किसकी आंखों का नूर हो तुम’(रफ़ी) और ‘पी के चले, ये चले’ (लता)। एक गीत कमाल अमरोही के नाम से है - ‘तन्हाई सुनाया करती है, कुछ बीते दिनों का अफ़साना’ (लता) और शोभा गुटू की आवाज़ में एक पारंपरिक लोक गीत है - ‘बंधन बांधो, बांधो हे बंधन’।
इस रिकॉर्ड की भी ख़ूब बिक्री हुई। उसी से उत्साहित होकर बाद को कंपनी ने उसका सीडी भी जारी किया है।

अब देखिए, विडंबना यह है कि इस तमाम कामयाबी से न तो जीते जी ग़ुलाम मोहम्मद को और न उनके बाद उनके परिवार को किसी तरह का लाभ मिला। बाकी कई सारे कलाकारों की तरह उन्होंने कभी रॉयल्टी की शर्त ही नहीं रखी, सो रॉयल्टी भी नहीं मिलती।

यक़ीन जानिए, ग़ुलाम मोहम्मद सचमुच बहुत भावुक और भोले इंसान थे। आज की बात मैं एक बार फिर नौशाद साहब के बयान से ख़त्म करूंगा।
‘..नमाज़ रोज़े के बेहद पाबंद। हर जुमे की नमाज़ बाक़ायदगी से मेरे साथ ही बांद्रा की मस्जिद में पढ़ते थे। बड़े ज
ज़बाती इंसान थे। अक्सर किसी गीत के कम्पोज़ीशन के वक़्त किसी सुर का असर उनके दिल पर इतना होता कि वे ज़ारो-क़तार रोने लगते और मुझे भी रुला देते’।
और..

इसके बाद कुछ कहने की न तो मुझमें हिम्मत है और न ही ज़रूरत। बस सोचने की ज़रूरत है कि आखि़र इस दुनिया में अच्छे लोगों के साथ ऐसा क्यों होता है। -
राजकुमार केसवानी

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