Sunday, May 13, 2012

तरकश / जावेद अख्तर




लोग जब अपने बारे में लिखते हैं तो सबसे पहले यह बताते हैं कि वो किस शहर के रहने वाले हैं – मैं किस शहर को अपना शहर कहूँ ?  पैदा होने का जुर्म ग्वालियर में किया लेकिन होश सँभाला लखनऊ में, पहली बार होश खोया अलीगढ में, फिर भोपाल में रहकर कुछ होशियार हुआ लेकिन बम्बई आकर काफी दिनों तक होश ठिकाने रहे, तो आइए ऐसा करते हैं कि मैं अपनी जिन्दगी का छोटा सा फ्लैश बैक बना लेता हूँ। इस तरह आपका काम यानी पढना भी आसान हो जाएगा और मेरा काम भी, यानी लिखना।
        शहर लखनऊ….किरदार – मेरे नाना, नानी दूसरे घरवाले और मैं ….मेरी उम्र आठ बरस  है। बाप बम्बई में है, माँ कब्र में। दिन भर घर के आँगन में अपने छोटे भाई के साथ क्रिकेट खेलता हूँ। शाम को ट्यूशन पढाने के लिए एक डरावने से मास्टर साहब आते हैं। उन्हें पन्दरह रूपये महीना दिया जाता है ( यह बात बहुत अच्छी तरह याद है इसलिए कि रोज बताई जाती थी)। सुबह खर्च करने के लिए एक अधन्ना और शाम को एक इकन्नी दी जाती है, इसलिए  पैसे की कोई समस्या नहीं है। सुबह रामजी लाल बनिए की दुकान से रंगीन गोलियाँ खरीदता हूँ और शाम को सामने फुटपाथ पर खोमचा लगाने वाले भगवती की चाट पर इकन्नी लुटाता हूँ। ऐश ही ऐश है। स्कूल खुल गए हैं। मेरा दाखिला लखनऊ के मशहूर स्कूल कॉल्विन ताल्लुकेदार कॉलेज में छटी क्लास में करा दिया जाता है। पहले यहाँ सिर्फ ताल्लुकेदारों के बेटे पढ सकते थे, अब मेरे जैसे कमजातों को भी दाखिला मिल जाता है। अब भी बहुत महँगा है…मेरी फीस सत्रह रूपये महीना है ( यह बात बहुत अच्छी तरह याद है, इसलिए क्योंकि………जाने दिजिए)। मेरी क्लास में कई बच्चे घडी बाँधते हैं।     वो सब बहुत अमीर घरों के हैं। उनके पास कितने अच्छे – अच्छे स्वेटर हैं। एक के पास तो फाउन्टेन पेन भी है। यह बच्चे इन्टरवल में स्कूल की कैन्टीन से आठ आने की चॉकलेट खरीदते हैं ( अब भगवती की चाट अच्छी नहीं लगती)। कल क्लास में राकेश कह रहा था कि उसके डैडी ने कहा है कि वो उसे पढने के लिए इंग्लैड भेजेंगे। कल मेरे नाना कह रहे थे…..अरे कम्बख्त । मैट्रिक पास कर ले तो किसी डाकखाने में मोहर लगाने की नौकरी तो मिल जाएगी। इस उम्र में जब बच्चे इंजन ड्राईवर बनने का ख्वाब देखते हैं, मैंने फैसला कर लिया कि मैं बडा होकर अमीर बनूंगा…….
           शहर अलीगढ…..किरदार – मेरी खाला , दूसरे घरवाले और मैं……मेरे छोटे भाई को लखनऊ में नाना के घर में ही रख लिया गया है और मैं अपनी खाला के हिस्से में आया हूँ जो अब अलीगढ आ गई हैं। ठीक ही तो है। दो अनाथ बच्चों को कोई एक परिवार तो नहीं रख सकता। मेरी खाला के घर के सामने दूर जहाँ तक नजर जाती है मैदान है। उस मैदान के बाद मेरा स्कूल है….नवीं क्लास में हूँ, उम्र चौदह बरस है। अलीगढ में जब सर्दी होती है तो झूठमूठ नहीं होती। पहला घंटा सात बजे होता है। मैं स्कूल जा रहा हूँ। सामने से चाकू की धार की जैसी ठंडी और नुकीली हवा आ रही है। छूकर भी पता नहीं चलता कि चेहरा अपनी जगह है या हवा ने नाक कान काट डाले हैं। वैसे पढाई में तो नाक कटती ही रहती है। पता नहीं कैसे, बस, पास हो जाता हूँ। इस स्कूल में जिसका नाम मिंटो सर्किल है, मेरा दाखिला कराते हुए मेरे मौसा ने टीचर से कहा है……ख्याल रखियेगा इनका, दिल पढाई में कम फिल्मी गानों में ज्यादा लगता है।
  दिलीप कुमार की उडन खटोला, राजकपूर की श्री चार सौ बीस देख चुका हूँ। बहुत से फिल्मी गाने याद हैं, लेकिन घर में ये फिल्मी गाने गाना तो क्या, सुनना भी मना है इसलिए स्कूल से वापस आते हुए रास्ते में जोर जोर से गाता हूँ। ( माफ किजिएगा, जाते वक्त तो इतनी सर्दी होती थी कि सिर्फ पक्के राग ही गाए जा सकते थे)। मेरा स्कूल यूनिवर्सिटी एरिया में ही है। मेरी दोस्ती स्कूल के दो चार लडकों के अलावा ज्यादातर यूनिवर्सिटी के लडकों से है। मुझे बडे लडकों की तरह होटलों में बैठना अच्छा लगता है। अक्सर स्कूल से भाग जाता हूँ। स्कूल से शिकायतें आती हैं । कई बार घर वालों से काफी पिटा भी, लेकिन कोई फर्क नहीं पडा, कोर्स की किताबों में दिल नहीं लगा तो  नहीं लगा। लेकिन नॉवलें बहुत पढता हूँ। डाँट पडती है लेकिन फिर भी पढता हूँ। मुझे शेर बहुत याद हैं। यूनिवर्सिटी में जब उर्दू शेरों की अंताक्षरी होती है, मैं अपने स्कूल की तरफ से जाता हूँ  और हर बार मुझे बहुत से इनाम मिलते हैं। यूनिवर्सिटी के सारे लडके लडकियां मुझे पहचानते हैं। लडके मुझे पहचानते हैं मुझे इसकी खुशी है, लडकियां मुझे पहचानती हैं इसकी थोडी ज्यादा खुशी है।……
      …. अब मैं कुछ बडा हो चला हूँ……मैं पदरह साल का हूँ औऱ जिन्दगी में पहली बार एक लडकी को खत लिख रहा हूँ, मेरा दोस्त बीलू मेरी मदद करता है। हम दोनों मिलकर यह खत तैयार करते हैं। दूसरे दिन एक खाली बैडमिंटन कोर्ट में वो लडकी मुझे मिलती है और हिम्मत करके मैं यह खत उसे दे देता हूँ। यह मेरी जिन्दगी का पहला और आखिरी प्रेम पत्र है। ( उस खत में क्या लिखा था, यह भूल गया लेकिन वो लडकी आज तक याद है)।
     मैट्रिक के बाद अलीगढ छोड रहा हूँ। मेरी खाला बहुत रो रही हैं और मेरे मौसा उन्हें चुप कराने के लिए कह रहे हैं कि तुम तो इस तरह रो रही हो जैसे यह भोपाल नहीं वार फ्रंट पर जा रहा हो( उस वक्त न वो जानते थे और न मैं जानता था कि सचमुच war front पर ही जा रहा था )।
       शहर भोपाल……किरदार – अनगिनत मेहरबान, बहुत से दोस्त और मैं…….अलीगढ से बम्बई जाते हुए मेरे बाप ने मुझे भोपाल या यूँ कहिए आधे रास्ते में छोड दिया है। कुछ दिनों अपनी सौतेली माँ के घर में रहा हूँ। फिर वो भी छूट गया। सैफिया कॉलेज में पढता हूँ और दोस्तों के सहारे रहता हूँ। दोस्त जिनकी लिस्ट बनाने बैठूँ तो टेलीफोन डायरेक्टरी से मोटी किताब बन जाएगी। आजकल मैं बी ए सैकेन्ड इयर में हूँ। अपने दोस्त एजाज के साथ रहता हूँ। किराया वो देता है। मैं तो बस रहता हूँ। वो पढता है और ट्यूशन करके गुजर करता है। सब दोस्त उसे मास्टर कहते हैं………मास्टर से किसी बात पर झगडा हो गया है। बातचीत बंद है इसलिए मैं आजकल उससे पैसे नहीं माँगता, सामने दीवार पर टँगी हुई उसकी पैंट में से निकाल लेता हूँ या वो बगैर मुझसे बात किए मेरे सिरहाने दो-एक रूपये रखकर चला जाता है।
     मैं बी ए फाईनल में हूँ, यह इस कॉलेज में मेरा चौथा बरस है। कभी फीस नहीं दी……कॉलेज वालों ने माँगी भी नहीं, यह शायद सिर्फ भोपाल में ही हो सकता है।
      कॉलेज के कम्पाउंड में एक खाली कमरा, वो भी मुझे मुफ्त दे दिया गया है, जब क्लास खत्म हो जाती है तो मैं किसी क्लास रूम से दो बेंच उठाकर इस कमरे में रख लेता हूँ और उन पर अपना बिस्तर बिछा लेता हूँ। बाकी सब आराम है बस बैंचो में खटमल बहुत हैं। जिस होटल में उधार खाता था वो मेरे जैसे मुफ्तखोरों को उधार खिला खिलाकर बंद हो गया है। उसकी जगह जूतों की दुकान खुल गई है। अब क्या खाऊँ। बीमार हूँ, अकेला हूँ, बुखार काफी है, भूख उससे भी ज्यादा है। कॉलेज के दो लडके, जिनसे मेरी मामूली जान पहचान है मेरे लिए टिफिन में खाना लेकर आते हैं…..मेरी दोनों से कोई दोस्ती नहीं है, फिर भी……अजीब बेवकूफ हैं, लेकिन मैं बहुत चालाक हूँ, उन्हें पता भी नहीं लगने देता कि इन दोनों के जाने के बाद मैं रोउंगा। मैं अच्छा हो जाता हूँ। वो दोनों मेरे बहुत अच्छे दोस्त हो जाते हैं …….मुझे कॉलेज में डिबेट बोलने का शौक हो गया है। पिछले तीन बरस से भोपाल रोटरी क्लब की डिबेट का इनाम जीत रहा हूँ। इंटर कॉलेज डिबेट की बहुत सी ट्रॉफियां मैंने जीती हैं। विक्रम यूनिवर्सिटी की तरफ से दिल्ली यूथ फेस्टिवल में भी हिस्सा लिया है। कॉलेज में दो पार्टीयां हैं और एलेक्शन में दोनों पार्टियाँ मुझे अपनी तरफ से बोलने को कहती हैं….मुझे एलेक्शन से नहीं, सिर्फ बोलने से मतलब है इसलिए मैं दोनों तरफ से तकरीर कर देता हूँ।
      कॉलेज का यह कमरा भी जाता रहा। अब मैं मुश्ताक सिंह के साथ हूँ। मुश्ताक सिंह नौकरी करता है औऱ पढता है। वो कॉलेज की उर्दू असोसिएशन का सद्र है। मैं बहुत अच्छी उर्दू जानता हूँ। वो मुझसे भी बेहतर जानता है। मुझे अनगिनत शेर याद हैं। उसे मुझसे ज्यादा याद है। मैं अपने घर वालों से अलग हूँ। उसके घर वाले हैं ही नहीं।………..देखिए हर काम में वो मुझसे बेहतर है। साल भर से वो मुझसे दोस्ती खाने कपडे पर निभा रहा है यानी खाना भी वही खिलाता है औऱ कपडे भी वही सिलवाता है – पक्का सरदार है – लेकिन मेरे लिए सिग्रेट खरीदना उसकी जिम्मेदारी है।
     अब मैं कभी कभी शराब भी पीने लगा हूँ – हम दोनों रात को बैठे शराब पी रहे हैं – वो मुझे पारटीशन और उस जमाने के दंगों के किस्से सुना रहा है  - वो बहुत छोटा था लेकिन उसे याद है – कैसे दिल्ली के करोल बाग में दो मुसलमान लडकियों को जलते हुए तारकोल के ड्रम में डाल दिया गया था औऱ कैसे एक मुसलमान लडके को……मैं कहता हूँ , “मुश्ताक सिंह । तू क्या चाहता है जो एक घंटे से मुझे ऐसे किस्से सुना सुनाकर मुस्लिम लीगी बनाने की कोशिश कर रहा है – जुल्म की ये ताली तो दोनों हाथों से बजी थी – अब जरा दूसरी तरफ की भी तो कोई वारदात सुना।”
     मुश्ताक सिंह हँसने लगता है……"चलो सुना देता हूँ – जग बीती सुनाऊँ या आप बीती” मैं कहता हूँ “आपबीती” और वो जवाब देता है, “मेरा ग्यारह आदमियों का खानदान था – दस मेरी आँखों के सामने कत्ल किए गए हैं……”
    मुश्ताक सिंह को उर्दू के बहुत से शेर याद हैं – मैं मुश्ताक सिंह के कमरे में एक साल से रहता हूँ। बस एक बात समझ में नहीं आती - “मुश्ताक सिंह तुझे उन लोगों ने क्यों छोड दिया ? तेरे जैसे भले लोग चाहे किसी जात किसी मजहब में पैदा हों, हमेशा सूली पर चढाये जाते हैं – तू कैसे बच गया ?”………….आजकल वो ग्लासगो में हैं। जब हम दोनों अलग हो रहे थे तो मैंने उसका कडा उससे लेकर पहन लिया था और वह आज तक मेरे हाथ में है और जब भी उसके बारे में सोचता हूँ ऐसा लगता है कि वो मेरे सामने है और कह रहा है -
 बहुत नाकामियों पर आप अपनी नाज करते हैं
 अभी देखी कहाँ है,   आपने   नाकामियाँ    मेरी

      शहर बंबई……..किरदार – फिल्म इंडस्ट्री , दोस्त, दुश्मन और मैं……….4 अक्टूबर 1964, मैं बम्बई सेंट्रल स्टेशन पर उतरा हूँ। अब इस अदालत में मेरी जिंदगी का फैसला होना है। बम्बई आने के छह दिन बाद बाप का घर छोडना पडता है। जेब में सत्ताईस नए पैसे हैं। मैं खुश हूँ कि जिंदगी में कभी अट्ठाईस नए पैसे भी जेब में आ गए तो मैं फायदे में रहूँगा और दुनिया घाटे में।
      बम्बई में दो बरस होने को आए, न रहने का ठिकाना है न खाने का। यूँ तो एक छोटी सी फिल्म में सौ रूपये महीने पर डॉयलॉग लिख चुका हूँ। कभी कहीं असिस्टेंट हो जाता हूँ, कभी एकाध छोटा-मोटा काम मिल जाता है, अक्सर वो भी नहीं मिलता। दादर एक प्रोडयूसर के ऑफिस अपने पैसे माँगने आया हूँ, जिसने मुझसे अपनी पिक्चर के कॉमेडी सीन लिखवाए थे। ये सीन उस मशहूर राइटर के नाम से ही फिल्म में आएंगे जो ये फिल्म लिख रहा है। ऑफिस बंद है। वापस बांदरा जाना है जो काफी दूर है। पैसे बस इतने हैं कि या तो बस का टिकट ले लूँ  या कुछ खा लूँ, मगर फिर पैदल वापस जाना पडेगा। चने खरीदकर जेब में भरता हूँ और पैदल सफर शुरू करता हूँ। कोहेनूर मिल्स के गेट के सामने से गुजरते हुए सोचता हूँ कि शायद सब बदल जाए लेकिन यह गेट तो रहेगा। एक दिन इसी के सामने से अपनी कार से गुजरूँगा।
     एक फिल्म में डॉयलॉग लिखने का काम मिला है। कुछ सीन लिखकर डायरेक्टर के घर जाता हूँ। वो बैठा नाश्ते में अनानास खा रहा है, सीन लेकर पढता है और सारे कागज मेरे मुँह पर फेंक देता है और फिल्म से निकालते हुए मुझे बताता है कि मैं जिंदगी में कभी राइटर नहीं बन सकता । तपती धूप में एक सडक पर चलते हुए मैं अपनी आँख के कोने में आया एक आँसू पोछता  हूँ और सोचता हूँ कि मैं एक दिन इस डायरेक्टर को दिखाउंगा कि मैं ……..फिर जाने   क्यों ख्याल आता है कि क्या ये डायरेक्टर नाश्ते में रोज अनानास खाता होगा।
 - जावेद अख्तर

(जारी…………. शेष अगली पोस्ट में…………..)

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