Tuesday, May 22, 2012

जगजीत सिंह: भुलाये नहीं भूल सकता है कोई


कई सितारों को मैं जानता हूँ बचपन से
कहीं भी जाऊँ मेरे साथ-साथ चलते हैं
(बशीर बद्र)
बीसवी सदी के सातवें और आठवें दशक में जन्मने वाली पीढ़ियों के भारतीयों के लिये जगजीत सिंह वही सितारे थे जो उनके साथ हमेशा चलता रहा भले ही वे विश्व के किसी भी कोने में क्यों न चले गये हों। जो आवाज बचपने से ऊँगली पकड़ कर संगीत की तहजीब देती रही हो वह सहसा चुप हो जाये तो निर्वात उत्पन्न हो जाता है, कानों में शून्यता भर जाती है। जगजीत सिंह का जाना घनीभूत पीड़ा के अहसास लेकर आया है।
जगजीत सिंह एक गायक के रुप में किस गहराई से लोगों के जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं, यह उनके देहावसन पर उपजे सामूहिक शोक से स्पष्ट है। अनगिनत लोगों को उनका जाना ऐसा लगा है जैसे किसी बेहद करीबी के जाने से उस रिश्ते की जगह एक रिक्तता आ गयी हो, एक शून्य स्थापित हो गया हो।
इस कथन में कतई अतिश्योक्त्ति नहीं है कि जगजीत सिंह न होते तो आठवें दशक में हिन्दी फिल्मों में शुरु हो गये ऊट-पटांग सगीत, जिसे शोर कहना ज्यादा मुनासिब होगा, को सुनने वाली पीढ़ी संगीत के क्षेत्र में अनपढ़ और अज्ञानी ही रह जाती। उनके कान यह जान ही न पाते कि अच्छा संगीत होता क्या है? फिल्मी संगीत से निराश होती जा रही पीढ़ी को जगजीत सिंह की मधुर गायिकी ने संगीत से जोड़े रखा और उन्हे संगीत की तहजीब से महरुम होने से बचा लिया।
ग़ालिब, सुदर्शन फाकिर, बशीर बद्र, निदा फाजली, और गुलज़ार आदि श्रेष्ठ शायरों एवम कवियों की लेखनी से निकले शब्दों को वाजिब संगीतरुपी मानी दिये जगजीत सिंह की गायिकी ने। उनके द्वारा गायी गयी कृतियों के कारण काव्य की महिमा बनाये रखने में बहुत बड़ी सहायता मिली और श्रोताओं ने गीतों के शब्दों पर ध्यान देना कायम रखा और कुछ ने यह बात जगजीत सिंह के गीतों को सुनकर सीखी। एक गुलज़ार को छोड़ दें तो पिछले तीस सालों में गाहे बेगाहे ही किसी फिल्मी गीतकार ने गीतों को सार्थक और अच्छे किस्म के बोल प्रदान किये होंगे और धुन की बीट पर तुकबंदी ही ज्यादातर फिल्मी संगीत पर छाई रही है। तुकबंदी के ऐसे भयावह दौर में जगजीत सिंह द्वारा किये गये गीतों एवम गज़लों के चुनाव ने अच्छे काव्य को संगीत में ज़िंदा रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। उनके द्वारा चुने गये गीतों में उपस्थित काव्य जीवन को समृद्ध बनाता रहा है।
उनके द्वारा गाये और संगीत से संजोये गीतों ने अनगिनत लोगों के जीवन को गहराई से छुआ है। उनकी मखमली गायिकी ने कितने ही दिलों को राहत दी है, उन्हे कठिन दौर में सहारा दिया है। उनके हल्के फुल्के हास्य परिबोध की झलकियों से भरे गीतों ने लोगों को आनंदित किया है। गैर-फिल्मी संगीत में उन्होने एक विशाल फलक का दायरा तय किया है।
गीतों के बोल तो अपना संबंध बनाते ही हैं सुनने वाले के साथ पर अगर उन्ही बोलों को जगजीत सिंह जैसे गुणी और सुरीले गायक गायें तो मसला पहली नज़र के प्रेम वाला और उसके बाद चिर-स्थायी संबंध वाला हो जाता है।
गौर करेंगे तो ऐसा पाया जा सकता है कि ऐसा अनिवासी भारतीय ढूँढ़ पाना एक अजूबा होगा जिसका अंतर्मन भीग न गया हो जब-जब या जब कभी भी उसने जगजीत सिंह की सोज़ भरी गायिकी में निदा फाज़ली का दोहा-
मैं रोया परदेश में भीगा माँ का प्यार,
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार
सुना हो।
निदा फाज़ली के ही दोहे –
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार,
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार
को जब वे गाते हैं तो इस बात पर सहज ही विश्वास हो जाता है और यह केवल एक सैद्धांतिक बात ही नहीं रह जाती।
ऐसा श्रोता कहाँ होगा जिसके अंतर्मन के तारों को झंकृत करके उसे बीते जीवन की यादों में ले जाकर उसके मन को भीगा न गया हो. जब भी उसने वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी, सुना हो?
इसी एक गीत को गाकर भी जगजीत सिंह अमर हो जाते।
जगजीत सिंह ने एक से बढ़कर एक गीत संगीत संसार को दिये हैं और दिनों-दिन संगीत के प्रति योगदान के ऊपर लिखा जाये तो भी कम पड़ेगा।
आज जब उनके जाने का अहसास एकदम नया है और चारों तरफ स्तब्धता छायी प्रतीत होती है और शब्द सूझते नहीं है, उनके इस गीत को सुनने से पीड़ा कम हो सकती है।
यह गीत, श्रोता, चाहे वह किसी भी उम्र का क्यों न हो, को उसके जीवन में पीछे ले जाता है और उसकी स्मृतियों के ऊपर जमी पड़ी धूल झाड़ कर उसे स्वच्छ बना देता है और उसके अंदर भावनाओं की सरिता बहा देता है। बचपन में भले ही बड़ों को देखकर बच्चों के मन में जल्दी से बड़ा होने की उत्सुकता और इच्छा जन्मती हो पर एक बार बड़े होने के बाद बचपन जीवन का वह पड़ाव बन जाता है जिसकी ओर मन बार-बार लौटकर जाना/आना चाहता है।
कई मर्तबा पीछे बचपन में लौट जाने की इच्छा इतनी तीव्र होती है कि मानव का मन कुछ भी कीमत चुकाकर बस बचपन में लौट जाना चाहता है। सुदर्शन फाकिर ने इसी इच्छा और अहसास को बड़ी खूबसूरती से अपने शब्दों में ढ़ाला है और जगजीत सिंह ने शब्दों को भावनाओं की मखमली वेशभूषा पहनाकर प्रस्तुत किया है।
ये दौलत भी ले लो
ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी
यह गीत अपने वर्णन में चित्रात्मक है, विम्बात्मक है और इसे सुनकर अलग अलग श्रोतागण के मन-मस्तिष्क में अलग-अलग विम्ब उभरते हैं उनकी अपनी स्मृतियों से मेल खाते हुये। यह गीत पूर्णतया कल्पना पर आधारित नहीं है बल्कि यह सुनने वाले की ज़िंदगी के बीत हुये का एक सच्चा हिस्सा बन कर उसका साथी बन जाता है। कहा ही नहीं जाता रहा है बल्कि माना भी जाता रहा है कि हरेक मानव के अंदर ताउम्र एक बच्चा जीवित रहता है और सुदर्शन फाकिर और जगजीत सिंह का यह संगीतमयी कारनामा प्रत्येक मानव के भीतर बैठे उसी बालमन से अपना संबंध जोड़ता है। अकसर कहा जाता है कि पसंद अपनी अपनी और ख्याल अपना अपना पर यह देखना रुचिकर होगा कि क्या यह उक्त्ति जगजीत सिह के इस गीत पर भी लागू हो सकती है? कोई ऐसा भी श्रोता हो सकता है जिसे इस गीत ने प्रभावित न किया हो, जिसे इस गीत ने उसकी बीती ज़िंदगी में लौटने और विचरने के लिये प्रेरित न किया हो?
मोहल्ले की सबसे पुरानी निशानी
वो बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी
वो नानी की बातों में परियों का डेरा
वो चेहरे की झुर्रियों में सदियों का फेरा
भुलाये नहीं भूल सकता है कोई
वो छोटी सी रातें
वो लम्बी कहानी
गीत, बच्चों को सुनायी जाने वाली कथाओं, परी कथाओं की विरासत को बड़े खूबसूरत अंदाज़ में जीवित करता है और इस विरासत के लगातर खोते जाने के दुख के अहसास को गाढ़ा कर देता है। बुजुर्गियत और बालपन के मध्य एक अटूट रिश्ता हुआ करता था। बुजुर्ग भी जीवन के प्रतियोगी रुप से परे हटकर क्षण में जी सकते थे और बच्चे तो क्षण में ही जीते हैं, उनके लिये वर्तमान ही सब कुछ है। और इसी सामंजस्य के कारण बुजुर्ग और बालक एक साथ देखे जाते थे, पाये जाते थे, बुजुर्ग अपने अनुभव से बच्चों की कल्पना शक्त्ति को बढ़ावा दिया करते थे, उनके लिये नित नई नई कहानियाँ गढ़कर और सुनाकर। वह परम्परा लगभग समाप्त हो गई है। कहीं दूर दराज कोई दिया टिमटिमा रहा हो तो बात अलग है वरना बड़े स्तर पर इस विरासत को संजो नहीं पाये हैं भारतीय। जगजीत सिंह और सुदर्शन फाकिर मोहल्ले की सबसे बुजुर्ग चेहरे की याद करते हुये इस अनूठी विरासत की समाप्ति का मर्सिया पढ़ते हैं। इसी गीत से इस बात का अहसास होता है कि भारतीयों ने अपने बच्चों के जीवन से कितनी खूबसूरत परम्परा को गायब कर दिया है। इस खजाने का अभाव दरिद्रता का अहसास कराता है।
कड़ी धूप में अपने घर से निकलना
वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना
वो गुड़िया की शादी पे
लड़ना झगड़ना
वो झुलों से गिरना
वो गिर के संभलना
वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफे
वो टूटी हुयी चूड़ियों की निशानी
वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी
बचपन में किये कृत्यों के विम्ब तमाम उम्र मन-मस्तिष्क से नहीं मिटते। बचपन में सिर्फ किये जा रहे कार्य में ही सारी ऊर्जा लगी रहती है इसलिये उन कार्यों की, उन खेलों की, उन शरारतों की और इन सबमें शामिल साथियों की स्मृतियाँ अमिट बन जाती है। उन्हे लौट कर फिर फिर देखना मानव जीवन का एक अभिन्न अंग होता है।
कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना
घरोंदे बनाना बना के मिटाना
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
ना दुनिया का ग़म था ना रिश्तों का बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िंदगानी
कमोबेश हरेक मानव बचपन में इन सब कृत्यों और खेलों में शामिल रहता है और बचपन के इन विम्बों को बुलाया नहीं जा सकता और कहना फिजूल है कि सुदर्शन फाकिर और जगजीत सिंह के इस गीत को कभी नहीं भुलाया जा सकता।

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