Wednesday, May 16, 2012

तरकश भाग -२ / जावेद अख्तर

 
.........रात के शायद दो बजे होंगे। बंबई की बरसात, लगता है आसमान से समंदर बरस रहा है। मैं खार स्टेशन के पोर्टिको की सीढियों पर एक कमजोर से बल्ब की कमजोर सी रौशनी में बैठा हूँ। पास ही जमीन पर इस आँधी-तूफान से बेखबर तीन आदमी सो रहे हैं। दूर कोने में एक भीगा हुआ कुत्ता ठिठुर रहा है। बारिश लगता है अब कभी नहीं रूकेगी। दूर तक खाली अँधेरी सडकों पर मूसलाधार पानी बरस रहा है। खामोश बिल्डिंगों की रौशनियां कब की बुझ चुकी हैं। लोग अपने अपने घरों में सो रहे होंगे। इसी शहर में मेरे बाप का भी घर है। बंबई कितना बडा शहर है और मैं कितना छोटा हूँ, जैसे कुछ भी नहीं हूँ। आदमी कितनी भी हिम्मत रखे, कभी-कभी बहुत डर लगता है।
             ......मैं अब साल भर से कमाल स्टूडियो ( जो कि अब नटराज स्टूडियो है) में रहता हूँ। कम्पाउंड में कहीं भी सो जाता हूँ। कभी किसी बरामदे में, कभी किसी पेड के नीचे, कभी किसी बेंच पर, कभी किसी कॉरिडोर में। यहाँ मेरे जैसे और कई बेघर और बेरोजगार इसी तरह रहते हैं। उन्हीं में से एक जगदीश है, जिससे मेरी अच्छी दोस्ती हो जाती है। वो रोज एक नई तरकीब सोचता कि आज खाना कहाँ से और कैसे मिल सकता है, आज दारू कौन और क्यों पिला सकता है। जगदीश ने बुरे हालात में जिंदा रहने को एक आर्ट बना लिया है।
            
         मेरी जान पहचान अँधेरी स्टेशन के पास फुटपाथ पर एक सेकंड हैंड किताब बेचने वाले से हो गई है। इसलिये किताबों की कोई कमी नहीं है। रात-रात भर कम्पाउंड में जहाँ भी थोडी रौशनी होती है, वहीं बैठकर पढता रहता हूँ। दोस्त मजाक करते हैं कि मैं इतनी कम रौशनी में अगर इतना ज्यादा पढता रहा तो कुछ दिनों में अंधा हो जाउंगा.....आजकल एक कमरे में सोने का मौका मिल गया है। स्टूडियो के इस कमरे में चारों तरफ दीवारों से लगी बडी-बडी अलमारियाँ हैं जिनमें फिल्म पाकीजा की दर्जनों कस्ट्यूम रखे हैं। मीना कुमारी कमाल साहब से अलग हो गई हैं इसलिए इन दिनों फिल्म की शूटिंग बंद है। एक दिन मैं अल्मारी का खाना खोलता हूँ, इसमें फिल्म में इस्तेमाल होनेवाले पुरानी तरह के जूते-चप्पल और सैंडिल भरे हैं और उन्हीं में मीना कुमारी के तीन फिल्मफेयर अवार्ड भी पडे हैं। मैं उन्हें झाड-पोंछकर अलग रख देता हूँ। मैंने जिंदगी में पहली बार किसी फिल्म अवार्ड को छुआ है। रोज रात को कमरा अंदर से बंद करके, वो ट्रॉफी अपने हाथ में लेकर आईने के सामने खडा होता हूँ और सोचता हूँ कि जब ये ट्रॉफी मुझे मिलेगी तो तालियों से गूँजते हुए हाल में बैठे हुए लोगों की तरफ देखकर मैं किस तरह मुस्कराउँगा और कैसे हाथ हिलाउँगा। इसके पहले कि इस बारे में कोई फैसला कर सकूँ स्टूडियो के बोर्ड पर नोटिस लगा है कि जो लोग स्टूडियो में काम नहीं करते वो कम्पाउंड में नहीं रह सकते। जगदीश मुझे फिर एक तरकीब बताता है कि जब तक कोई और इंतजाम नहीं होता हम लोग महाकाली की गुफाओं में रहेंगे (महाकाली अँधेरी से आगे एक इलाका है जहाँ अब एक घनी आबादी और कमालिस्तान स्टूडियो है।
              उस जमाने में वहाँ सिर्फ एक सडक थी, जंगल था और छोटी-छोटी पहाडियाँ जिनमें बौद्ध भिक्षुओं की बनाई पुरानी गुफाएँ थीं, जो आज भी हैं। उन दिनों उनमें कुछ चरस गाँजा पीनेवाले साधु पडे रहते थे)। महाकाली की गुफाओं में मच्छर इतने बडे हैं कि उन्हें काटने की जरूरत ही नहीं, आपके तन पर सिर्फ बैठ जांय तो आँख खुल जाती है। एक ही रात में यह बात समझ में आ गई कि वहाँ चरस पीए बिना कोई सो ही नहीं सकता। तीन दिन जैसे-तैसे गुजारता हूँ। बांदरा में एक दोस्त कुछ दिनों के लिए अपने साथ रहने के लिए बुला लेता है। मैं बांदरा जा रहा हूँ। जगदीश कहता है दो एक रोज में वो भी कहीं चला जाएगा ( ये जगदीश से मेरी आखिरी मुलाकात थी। आनेवाले बरसों में जिंदगी मुझे कहाँ से कहाँ ले गई मगर वो ग्यारह बरस बाद वहीं, उन्हीं गुफाओं में चरस और कच्ची दारू पी-पीकर मर गया और वहाँ रहने वाले साधुओं और आसपास के झोपडपट्टी वालों ने चंदा करके उसका क्रिया-कर्म कर दिया। किस्सा –खतम। मुझे और उसके दूसरे दोस्तों को उसके मरने की खबर भी बाद में मिली। मैं अकसर सोचता हूँ कि मुझमें कौन से लाल टँके हैं और जगदीश में ऐसी क्या खराबी थी। ये भी तो हो सकता था कि तीन दिन बाद जगदीश के किसी दोस्त ने उसे बांदरा बुला लिया होता और मैं पीछे उन गुफाओं में रह जाता। कभी-कभी सब इत्तिफ़ाक लगता है। हम लोग किस बात पर घमंड करते हैं)।
                 मैं बांदरा में जिस दोस्त के साथ एक कमरे में आकर रहा हूँ वो पेशावर जुआरी है। वो और उसके दो साथी जुए में पत्ते लगाना जानते हैं। मुझे भी सिखा देते हैं। कुछ दिनों उनके साथ ताश के पत्तों पर गुज़ारा होता है फिर वो लोग बंबई से चले जाते हैं और मैं फिर वहीं का वहीं – अब अगले महीने इस कमरे का किराया कौन देगा। एक मशहूर और कामयाब राइटर मुझे बुलाके ऑफर देते हैं कि अगर मैं उनके डॉयलॉग लिख दिया करूँ ( जिन पर जाहिर है मेरा नहीं उनका ही नाम जाएगा) तो वो मुझे छह सौ रूपये महीना देंगे। सोचता हूँ यह छह सौ रूपये मेरे लिए इस वक्त छह करोड के बराबर है, ये नौकरी कर लूँ, फिर सोचता हूँ कि नौकरी कर ली तो कभी छोडने की हिम्मत नहीं होगी, ज़िंदगी भर यही करता रह जाउँगा, फिर सोचता हूँ अगले महीने का किराया देना है, फिर सोचता हूँ देखा जाएगा। तीन दिन सोचने के बाद इनकार कर देता हूँ। दिन, हफ्ते,महीने,साल गुजरते हैं। बंबई में पांच बरस होने को आए, रोटी एक चाँद है हालात बादल, चाँद कभी दिखाई देता है, कभी छुप जाता है। ये पाँच बरस मुझ पर बहुत भारी थे मगर मेरा सर नहीं झुका सके। मैं नाउम्मीद नहीं हूँ। मुझे यकीन है, कुछ होगा, कुछ जरूर होगा, मैं यूँ ही मर जाने के लिए नहीं पैदा हुआ हूँ – और आखिर नवम्बर 1969 में मुझे वो काम मिलता है जिसे फ़िल्मवालों की ज़बान में सही ‘ब्रेक’ कहा जाता है।
              कामयाबी भी जैसे अलादीन का चिराग़ है। अचानक देखता हूँ कि दुनिया ख़ूबसूरत है और लोग मेहरबान। साल-डेढ साल में बहुत कुछ मिल गया है और बहुत कुछ मिलने को है। हाथ लगते ही मिट्टी सोना हो रही है और मैं देख रहा हूँ- अपना पहला घर, अपनी पहली कार। तमन्नाएँ पूरी होने के दिन आ गए हैं मगर ज़िंदगी में एक तनहाई तो अब भी है। सीता और गीता के सैट पर मेरी मुलाक़ात हनी ईरानीसे होती है। वो एक खुले दिल की, ख़री ज़बान की मगर बहुत हँसमुख स्वाभाव की लडकी है। मिलने के चार महीने बाद हमारी शादी हो जाती है। मैंने शादी में अपने बाप के कई दोस्तों को बुलाया है मगर अपने बाप को नहीं ( कुछ जख़्मों को भरना अलादीन के चिराग़ के देव के बस की बात नहीं)- वे काम सिर्फ़ वक़्त ही कर सकता है)। दो साल में एक बेटी और एक बेटा, जोया और फ़रहान होते हैं।
          अगले छह वर्षों में एक के बाद एक लगातार बारह सुपर हिट फ़िल्में, पुरस्कार, तारीफें, अखबारों और मैगज़ीनों में इंटरव्यू, तस्वीरें, पैसा और पार्टियाँ, दुनिया के सफ़र, चमकीले दिन, जगमगाती रातें- जिंदगी एक टेक्नीकलर ख़्वाब है, मगर हर ख़्वाब की तरह यह ख़्वाब भी टूटता है। पहली बार एक फिल्म की नाकामी- ( फिल्में तो उसके बाद नाकाम भी हुईं और कामयाब भी मगर कामयाबी की वो खुशी और ख़ुशी की वो मासूमियत जाती रही)।
            18 अगस्त 1976 को मेरे बाप की मृत्यु होती है ( मरने से नौ दिन पहले उन्होंने मुझे अपनी आखिरी किताब ऑटोग्राफ करके दी थी, उसपर लिखा था – ‘जब हम न रहेंगे तो बहुत याद करोगे’। उन्होंने ठीक लिखा था)। अब तक तो मैं अपने आपको एक बाग़ी और नाराज़ बेटे के रूप में पहचानता था मगर अब मैं कौन हूँ। मैं अपने-आपको और फिर अपने चारों तरफ़, नई नजरों से देखता हूँ कि क्या बस यही चाहिए था मुझे ज़िंदगी से। इसका पता अभी दूसरों को नहीं है मगर वो तमाम चीज़ें जो कल तक मुझे ख़ुशी देती थीं झूठी और नुमाइशी लगने लगी हैं। अब मेरा दिल उन बातों में ज़्यादा लगता है जिनसे दुनिया की ज़बान में कहा जाए तो, कोई फ़ायदा नहीं। शायरी से मेरा रिश्ता पैदाइशी और दिलचस्पी हमेशा से है।
              लड़कपन से जानता हूँ कि चाहूँ तो शायरी कर सकता हूँ मगर आज तक की नहीं है। ये भी मेरी नाराज़गी और बग़ावत का एक प्रतीक है। 1979 में पहली बार शे’र कहता हूँ और ये शे’र लिखकर मैंने अपनी विरासत और अपने बाप से सुलह कर ली है। इसी दौरान मेरी मुलाकात शबाना आज़मी से होती है। कैफ़ी आज़मी की बेटी शबाना भी शायद अपनी जड़ों की तरफ़ लौट रही है। उसे भी ऐसे हज़ारों सवाल सताने लगे हैं जिनके बारे में उसने पहले कभी सोचा नहीं था। कोई हैरत नहीं कि हम क़रीब आने लगते हैं। धीरे-धीरे मेरे अंदर बहुत कुछ बदल रहा है। फ़िल्मी दुनिया मे जो मेरी पार्टनरशिप थी टूट जाती है। मेरे आसपास के लोग मेरे अंदर होनेवाली इन तब्दीलियों को परेशानी से देख रहे हैं। 1983 में मैं और हनी अलग हो जाते हैं।  ( हनी से मेरी शादी ज़रूर टूट गई मगर तलाक़ भी हमारी दोस्ती का कुछ नहीं बिगाड़ सकी। और अगर माँ-बाप के अलग होने से बच्चों में कोई ऐसी कड़वाहट नहीं आई तो इसमें मेरा कमाल बहुत कम और हनी की तारीफ़ बहुत ज्यादा है। हनी आज एक बहुत कामयाब फ़िल्म राइटर है और मेरी बहुत अच्छी दोस्त। मैं दुनिया मे कम लोगों की इतनी इज़्ज़त करता हूँ जितनी इज़्ज़त मेरे दिल में हनी के लिए है)।
                 मैंने एक कदम उठा तो लिया था मगर घर से निकल के कई बरसों के लिए मेरी ज़िंदगी ‘कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जाकर’ जैसी हो गई। शराब पहले भी बहुत पीता था मगर फिर बहुत ज़्यादा पीने लगा। ये मेरी ज़िंदगी का एक दौर है जिस पर मैं शर्मिंदा हूँ। इन चंद बरसों में अगर दूसरों ने मुझे बर्दाश्त कर लिया तो ये उनका एहसान है। बहुत मुमकिन था कि मैं यूँ ही शराब पीते-पीते मर जाता मगर एक सबेरे किसी की बात ने ऐसा छू लिया कि उस दिन से मैंने शराब को हाथ नहीं लगाया और न कभी लगाउँगा।
             आज इतने बरसों बाद अपनी ज़िंदगी को देखता हूँ तो लगता है कि पहाडों से झरने की तरह उतरती, चटानों से टकराती, पत्थरों में अपना रास्ता ढूँढती, उमड़ती, बलखाती, अनगिनत भँवर बनाती, तेज़ चलती और अपने ही किनारों को काटती हुई ये नदी अब मैदानों में आकर शांत और गहरी हो गई है।
          मेरे बच्चे ज़ोया और फ़रहान बड़े हो गए हैं और बाहर की दुनिया में अपना पहला क़दम रखने को हैं। उनकी चमकती हुई आँखों में आनेवाले कल के हसीन ख़्वाब हैं। सलमान, मेरा छोटा भाई, अमेरिका में एक कामयाब साइकोएनालिस्ट, बहुत-सी किताबों का लेखक, बहुत अच्छा शायर, एक मोहब्बत करने वाली बीवी का पति और दो बहुत ज़हीन बच्चों का बाप है। ज़िंदगी के रास्ते उसके लिए कुछ कम कठिन नहीं थे मगर उसनें अपनी अनथक मेहनत और लगन से अपनी हर मंज़िल पा ली है और आज भी आगे बढ रहा है। मैं खुश हूँ और शबाना भी, जो सिर्फ मेरी बीवी नहीं मेरी महबूबा भी है। जो एक खूबसूरत दिल भी है और एक क़ीमती ज़हन भी। “मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो उस दुनिया की औरत है” – ये पंक़्ति अगर बरसों पहले ‘मज़ाज़’ ने किसी के लिए न लिखी होती तो मैं शबाना के लिए लिखता।
              आज यूँ तो ज़िंदगी मुझ पर हर तरह से मेहरबान है मगर बचपन का वो एक दिन, 18 जनवरी 1953 अब भी याद आता है। जगह, लखनऊ, मेरे नाना का घर- रोती हुई मेरी खाला, मेरे छोटे भाई सलमान को, जिसकी उम्र साढ़े छह बरस है और मुझे हाथ पकड़ के घर के उस बड़े कमरे में ले जाती है जहाँ फ़र्श पर बहुत सी औरतें बैठी हैं। तख़्त पर सफ़ेद कफ़न में लेटी मेरी माँ का चेहरा खुला है। सिरहाने बैठी मेरी बूढ़ी नानी थकी-थकी सी हौले-हौले रो रही हैं। दो औरतें उन्हें संभाल रही हैं। मेरी ख़ाला हम दोनों बच्चों को उस तख़्त के पास ले जाती हैं और कहती हैं, अपनी माँ को आखिरी बार देख लो। मैं कल ही आठ बरस का हुआ था। समझदार हूँ। जानता हूँ मौत क्या होती है। मैं अपनी माँ के चेहरे को बहुत ग़ौर से देखता हूँ कि अच्छी तरह याद हो जाए। मेरी ख़ाला कह रही हैं – इनसे वादा करो कि तुम ज़िंदगी में कुछ बनोगे, इनसे वादा करो कि तुम ज़िंदगी में कुछ करोगे। मैं कुछ कह नहीं पाता, बस देखता रहता हूँ और फ़िर कोई औरत मेरी माँ के चेहरे पर कफ़न ओढ़ा देती है –
            ऐसा तो नहीं है कि मैंने ज़िंदगी में कुछ किया ही नहीं है लेकिन फिर ये ख़्याल आता है कि मैं जितना कर सकता हूँ उसका तो एक चौथाई भी अब तक नहीं किया और इस ख़्याल की दी हुई बेचैनी जाती नहीं।

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