Monday, May 7, 2012

सच पे मर मिटने की ज़िद / शैलेन्द्र (2)

इस कविता की प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है !

शैलेंद्र
मत करो बहाने संकट है, मुद्रा प्रसार इन्फ्लेशन है
इन बनियों और लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है ?
बंगले मत झाँको, दो जवाब, क्या यही स्वराज तुम्हारा है
मत समझो हमको याद नहीं, हैं जून छियालिस की घातें
जब काले गोरे बनियों में चलती थी सौदे की बातें
रह गयी गुलामी बरकरार, हम समझे अब छुटकारा है

प्रगतिवादी परम्परा में शैलेन्द्र की कविताएँ बहुत-कुछ जोड़ती हैं. उन्हें एक धार देती हैं. “खून-पसीने से लथपथ पीड़ित-शोषित मानवता की दुर्दम हुंकारें” शैलेन्द्र की कविताओं में बार-बार सुनाई पड़ती है. उनमें प्रतिबद्धता है- सामान्य जन के प्रति एवं तीव्र आक्रोश है- शोषक वर्ग के प्रति.

शैलेन्द्र का एकमात्र काव्य-संगह- ‘न्यौता और चुनौती’ जो मई 1955 में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, बम्बई से प्रकाशित हुआ था, प्रगतिवादी कविता का एक स्वर्णिम दस्तावेज है.

तो ऐसी थी शैलेन्द्र की साहित्यक चेतना. वे पच्चीस वर्ष की उम्र में ही हिन्दी के लोकप्रिय गीतकारों में अपना स्थान बना चुके थे. देश भर में कहीं भी कवि-सम्मेलन हो रहा हो, उन्हें निमंत्रित किया जाता. लेकिन लोकप्रियता पाने के चक्कर में उन्होंने कभी भी अपनी रचनाशीलता को सतही नहीं बनाया. फिल्मों में जो सतही और भदेस गीति-रचना होती थी, उससे उन्हें घृणा थी. इसीलिए राज कपूर को उन्होंने गीत लिखने से इन्कार कर दिया. इस बीच वे शादी कर चुके थे. घर-गृहस्थी का खर्च काफी बढ़ गया था.

एक बार उन्हें कुछ रुपयों की सख्त जरूरत पड़ी. कहीं से भी जुगाड़ होना मुश्किल था. तब उन्हें राज कपूर की याद आयी. वे राज कपूर के पास गये. आगे का विवरण राज कपूर के ही शब्दों में- “ ‘आग’ बन गयी. ‘बरसात’ शुरु हुई. उस समय हमारा ऑफिस फेमस महालक्ष्मी में था. ऑफिस में बैठा था कि चपरासी ने आकर खबर दी- कवि शैलेन्द्र आपसे मिलना चाहते हैं. मुझे ‘इप्टा’ वाली घटना याद आ गयी. शैलेन्द्र कुछ निराशा, कुछ चिन्ता और कुछ क्रोध का भाव लिये बेधड़क मेरे कमरे में चले आये. आते ही बोले- याद है आपको, आप एक मर्तबा मेरे पास आये थे ? फिल्मों में गाना लिखवाने के लिए ? मैंने कहा था- याद है. वे तपाक से बोले- मुझे पैसों की जरूरत है. पाँच सौ रुपये चाहिए. जो मुनासिब समझें, काम करवा लीजिएगा. किसी से दबकर या बात को घुमा-फिराकर कुछ कहना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था.”

फिर शैलेन्द्र ने राज कपूर की ‘बरसात’ फिल्म के लिए उसका शीर्षक गीत लिखा- “बरसात में हमसे मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम, बरसात में.” यह 1949 की सबसे ज्यादा व्यावसायिक लोकप्रियता ग्रहण करने वाली फिल्म थी एवं शैलेन्द्र का लिखा यह पहला फिल्मी गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि शैलेन्द्र की माँग फिल्मी दुनिया में अचानक बढ़ गयी.

राज कपूर की फिल्मों में शैलेन्द्र एवं हसरत के ही सिर्फ गीत हुआ करते थे, उसमें भी ज्यादातर शैलेन्द्र के ही. फिर राज कपूर की ‘आवारा’ प्रदर्शित हुई. इसका शीर्षक गीत- “आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ” ने भी लोकप्रियता का कीर्तिमान स्थापित किया. ‘श्री 420’ का शीर्षक-गीत- “मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी, सर पे लाल टोपी रुसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी” तो कालातीत हो गया. राज कपूर की जिन अन्य फिल्मों में शैलेन्द्र ने यादगार गीत लिखे, उनमें ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘बूट पॉलिस’, ‘अनाड़ी’, ‘संगम’ आदि प्रमुख है. इनके कुछ प्रमुख गीत हैं-
नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है !
मुट्ठी में है तकदीर हमारी. - बूट पालि
(1954)
इसी फिल्म का दूसरा गीत अपनी भाव-गर्भिता में एवं बच्चों को सम्बोधित अविस्मरणीय रचना है-
तू बढ़ता चल
तू रूक न कहीं, तू झुक न कहीं, तेरी है जमीं
तू बढ़ता चल
तारों के हाथ पकड़ता चल
तू एक है प्यारे लाखों में, तू बढ़ता चल
ये रात गयी
वो सुबह नयी !

यह रात भारत की गुलामी की थी और नयी सुबह आजादी की है, जिसे हमारे बच्चों को नयी आस्था, विश्वास और श्रम के साथ आगे बढ़ते हुए हासिल करना होगा, यह बात शैलेन्द्र कितने ओजस्वी, प्रभावपूर्ण एवं मार्मिक ढंग से रख रहे थे. ‘श्री 420’ का गीत ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’ फिल्मी गीतों में एक नई शैली की गीति-रचना है. इसमें शैलेन्द्र ने भारत की भूखी-नंगी, दुखी-विपन्न जनता को अपनी वाणी दी है-

छोटे से घर में, गरीब का बेटा
मैं भी हूँ माँ के नसीब का बेटा
रंजों-गम बचपन के साथी
आँसुओं से जली जीवन-बाती
भूख ने है बड़े प्यार से पाला
दिल का हाल सुने दिलवाला
ग़म से अभी आजाद नहीं हूँ
खुश हूँ, मगर आबाद नहीं हूँ
मंजिल मेरे पास खड़ी है
पांव में मेरी बेड़ी पड़ी है
टाँग अड़ाता है दौलतवाला
दिल का हाल सुने दिलवाला !

‘जागते रहो’ फिल्म में मोतीलाल पर चित्रित किया गया और मुकेश के द्वारा गाया गया यह गीत एक नया जीवन-दर्शन प्रस्तुत करता है-
“जिंदगी
ख्वाब है
ख्बाब में झूठ क्या !
और भला सच है क्या !”

यह गीत अपने ढाँचे में नई कविता की तरह है. ‘अनाड़ी’ फिल्म का शीर्षक-गीत- “सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालों कि हम हैं अनाड़ी !” जब मुकेश की आवाज़ में स्वर-बद्ध हुआ तो राज कपूर आधी रात को शैलेन्द्र के घर गये एवं उन्हें जगाकर गले से लगा लिया और कहा- “शैलेन्द्र ! मेरे दोस्त ! गाना सुनकर रहा नहीं गया. क्या गीत लिखा है ?”

2 comments:

Anonymous said...

छोटे से घर में, गरीब का बेटा
मैं भी हूँ माँ के नसीब का बेटा
रंजों-गम बचपन के साथी

yar kamal ki rachnakar the

ek acchi jankari di aap ne

Anonymous said...

bhai comment verification code hata de