Sunday, May 6, 2012

सच पे मर मिटने की ज़िद / शैलेन्द्र

हिन्दी सिनेमा को जिन कुछ गीतकारों ने गरिमा और गहराई प्रदान की, उनमें शैलेन्द्र प्रथम स्थानीय हैं. उनका योगदान अविस्मरणीय है. उनके गीत आज भी ताजा और बेमिसाल हैं. समय की धूल भी उन्हें धूमिल नहीं कर पायी. जनकवि नागार्जुन ने शैलेन्द्र की स्मृति में दो कविताएँ लिखी हैं. उनकी ये दो पंक्तियाँ शैलेन्द्र के गीतों के विषय में रेखांकित करने योग्य हैं- “युग की अनुगूंजित पीड़ा ही घोर घनघटा-सी गहराई, प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई.”
शैलेंद्र

शैलेन्द्र की लोकप्रियता का राज यह है कि वे जीवन और समय की नब्ज पर हाथ रखने वाले गीतकार थे. वे सामान्य मनुष्य की पीड़ा को अभिव्यक्त करते थे. उनके गीतों की भाषा में अलंकार नहीं मिलेगा. सीधे-सादे शब्द. सरल वाक्य-संरचना. बातचीत या संवाद की शैली. दो टूक कहने का अंदाज. फिर भी अर्थ-गरिमा और गांभीर्य से भरा कथन. दिल को छू लेने वाला. जनता के भावों को अभिव्यक्ति देने वाला. शैलेन्द्र अपने एक गीत में अपनी अभिलाषा को उजागर करते हैं- “सुनसान अंधेरी रातों में, जो घाव दिखाती है दुनिया/उन घावों को सहला जाऊँ, दुखते दिल को बहला जाऊँ/सुनसान मचलती रातों में, जो स्वप्न सजाती है दुनिया/निज गीतों में छलका जाऊँ, फिर मैं चाहे जो कहलाऊँ /बस मेरी यह अभिलाषा है.” इसी अभिलाषा के कारण शैलेन्द्र महान् गीतकार हो सके, जनकवि बन सके. सिनेमा में- जहाँ हर प्रकार की कला बिकती है या कहें कि कहानी, गीत, संगीत आदि कलाओं का यह एक बहुत बड़ा बाजार है- शैलेन्द्र के गीत अपनी साहित्यिकता और गरिमा बरकरार रख सके. उन्होंने जन-जीवन के स्वप्न, आकांक्षा और पीड़ा को ऐसी वाणी दी, जो आज भी अमर है.

राज कपूर ने शैलेन्द्र के विषय में सही लिखा है- “उन्होंने पैसों के लोभ में गीत कभी नहीं लिखे. ...जब तक उनके अपने अन्तर्भावों की गूंज नहीं उठती, तब तक वे नहीं लिखते थे.” अर्थात् शैलेन्द्र के गीत व्यावसायिकता के एक बड़े क्षेत्र में अन्तर्आत्मा की आवाज थे. उनमें चिन्तन है, मनन है, दर्शन है, विचार है, आध्यात्मिकता है, कम शब्दों में बड़ी बात कहने की कला है. मर्म को छूने वाली हृदय की बात है. सच्चाई, सफाई, ईमानदारी और सादगी है. उनका यह कहना, उनके सम्पूर्ण गीतों की विशेषताओं को स्पष्ट करता है- “दिल की बात कहे दिलवाला/छोटी-सी बात, न मिर्च मसाला, कहके रहेगा कहने वाला.” और फिर “दिल की बात सुने दिलवाला.” शैलेन्द्र दिल की बात कहते थे और उसे संवेदनशील मनुष्य ही सुन सकता था, ग्रहण कर सकता था.

झूठ, फरेब से उन्हें घृणा थी. सच पर मर मिटने की जिद. भले ही अनाड़ी या मूर्ख समझ लिये जायें, यह स्वीकार है. उनका काम है दर्द बाँटना, लोगों के लिए प्यार रखना- यही वास्तविक रूप में जीने की कला है. जीना इसी का नाम है. यही कारण है कि शैलेन्द्र आम जनमानस में अपनी जगह बना सके. उन्होंने हिन्दुस्तानी दिल की पहचान की और उसे अभिव्यक्ति दी.

शैलेन्द्र के पिताजी बिहार के रहने वाले थे. वे फौजी थे. वे जब रावलपिण्डी में पदस्थापित थे, तब वहीं 30 अगस्त, 1923 में शैलेन्द्र का जन्म हुआ. अवकाश प्राप्ति के बाद वे मथुरा में रहने लगे. शैलेन्द्र का बचपन, शिक्षा-दीक्षा सब मथुरा में ही हुआ. वे स्कूली जीवन से ही कविता लिखने लग गये थे. मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद 1942 में रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने वे बम्बई आये. 1942 के अगस्त क्रांति में वे शरीक हो गये और जेल गये. जेल से बाहर आने के बाद वे रेलवे में नौकरी करने लगे और इप्टा के थियेटर में काव्य-पाठ.

1946 में राज कपूर एक बार अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ इप्टा के थियेटर में गये और उन्होंने शैलेन्द्र को काव्य-पाठ करते सुना. शैलेन्द्र सुमधुर कंठ से गा रहे थे- “मोरी बगिया में आग लगा गयो रे गोरा परदेशी ...” राज कपूर उनसे बेहद प्रभावित हुए. उस वक्त राज कपूर अपनी पहली फिल्म बना रहे थे- ‘आग’. उन्होंने शैलेन्द्र से अपनी इस फिल्म के लिए गीत लिखने को कहा, लेकिन शैलेन्द्र ने इन्कार कर दिया. उन्होंने राज कपूर से दो टूक शब्दों में कहा- “मैं पैसे के लिए नहीं लिखता.” राज कपूर को शैलेन्द्र का यह अन्दाज लुभा गया. उन्होंने शैलेन्द्र को कहा- अच्छी बात है, कभी इच्छा हो तो मेरे पास आइयेगा.

उस जमाने में भी लोग फिल्मों में जाने के लिए लालायित रहते थे, पर एक नौजवान कवि का पैसे के लिए नहीं लिखने की प्रतिज्ञा, मामूली बात नहीं थी. उस समय शैलेन्द्र में विद्रोही चेतना थी. अन्तर्मन में आग थी. जनवादी ओजस्विता थी. उनके गीत वामपंथी तेवर के थे. कुछ बानगी के तौर पर उन्हें यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है- “वे अन्न-अनाज उगाते/ वे ऊँचे महल उठाते/ कोयले-लोहे-सोने से/ धरती पर स्वर्ग बसाते/ वे पेट सभी का भरते/ पर खुद भूखों मरते हैं.”

यह श्रमजीवी वर्ग के जीवन की त्रासदी को अभिव्यक्ति करने वाली पंक्तियाँ हैं. दूसरी कविता भगत सिंह को संबोधित- “भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की/ देशभक्ति के लिये आज भी सजा मिलेगी फाँसी की/ यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहाओगे/बंब-संब की छोड़ो, भाषण दोगे, पकड़े जाओगे.” ‘आजादी’ पर लिखी कविता की बानगी देखिए- “उनका कहना है: यह कैसी आजादी है/ वही ढाक के तीन पात है, बरबादी है/ तुम किसान मजदूरों पर गोली चलवाओ/ और पहन लो खद्दर, देश-भक्त कहलाओ.”

रेलवे कर्मचारियों के हड़ताल को जोर देने के लिए उन्होंने कविता लिखी थी- “हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है”- जो देश भर में एक नारे या स्लोगन के रूप में आज तक प्रयुक्त हो रही है. 1974 के आन्दोलन में रेणु जी ने ‘हड़ताल’ शब्द की जगह ‘संघर्ष’ रखकर इस नारे को और व्यापक रूप दे दिया था. 
अगली पोस्ट में जारी...

2 comments:

pankaj inquilabi पंकज इंकलाबी said...

शैलेन्द्र पर यह संकलन बहूत खूब है ! आपको भी धन्यवाद!

शब्दधर्म said...

बहुत सुंदर